दुर्गा सप्तशती मन्त्र पाठ एवं दुर्गा पूजा





॥ पूजन सामग्री ॥

धूपबत्ती(अगरबत्ती),कपूर,केसर,चंदन,यज्ञोपवीत5,कुंकुम,चावल अबीर गुलाल,अभ्रक, हल्दी आभूषण नाड़ा, रुई रोली, सिंदूर, सुपारी, पान के पत्ते, पुष्पमाला, कमलगट्टे,धनिया खड़ा सप्तमृत्तिका, सप्तधान्य, कुशा व दूर्वा,पंच मेवा,गंगाजल,शहद(मधु) शकर, घृत (शुद्ध घी), दही, दूध,ऋतुफल, नैवेद्य या मिष्ठान्न, (पेड़ा, मालपुए इत्यादि) इलायची (छोटी), लौंग, मौली, इत्र की शीशी, सिंहासन (चौकी, आसन) पंच पल्लव(बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते) पंचामृत,तुलसी दल, केले के पत्ते (यदि उपलब्ध हों तो खंभे सहित) औषधि (जटामॉसी, शिलाजीत आदि) श्री सत्यनारायणजी का पाना (अथवा मूर्ति) दुर्गाजी की मूर्ति, अम्बिका की मूर्ति, सत्यनारायण को अर्पित करने हेतु वस्त्र, गणेशजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र, अम्बिका को अर्पित करने हेतु वस्त्र,जल कलश (तांबे या मिट्टी का) सफेद कपड़ा (आधा मीटर) लाल कपड़ा (आधा मीटर) पंच रत्न (सामर्थ्य अनुसार) दीपक, बड़े दीपक के लिए तेल, बन्दनवार,ताम्बूल (लौंग लगा पान का बीड़ा) श्रीफल (नारियल) धान्य (चावल, गेहूँ) पुष्प (गुलाब एवं लाल कमल) एक नई थैली में हल्दी की गाँठ, खड़ा धनिया व दूर्वा आदि, अर्घ्य पात्र सहित अन्य सभी पात्र॥

गणेश - स्मरण

हाथ में पुष्प - अक्षत आदि लेकर प्रारम्भ में भगवान् गणेश जी का स्मरण करना चाहिये

 सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
 लम्बोदरच विकटो विघ्ननाशो विनायकः॥

 धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि॥

 विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
 संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य जायते॥

श्रीमन्महागणाधिपतये नमः, लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः, उमामहेश्वराभ्यां नमः, वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः, शचीपुरन्दराभ्यां नमः, मातृपितृचरण कमलेभ्यो नमः, इष्टदेवताभ्यो नमः, कुलदेवताभ्यो नमः, ग्रामदेवताभ्यो नमः, वास्तुदेवताभ्यो नमः, स्थानदेवताभ्यो नमः, एतत्कर्मप्रधानदेवताभ्यो नमः, सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः, सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः॥

  पूजनका संकल्प 

सर्वप्रथम पूजनका संकल्प करे

निष्काम संकल्प

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य ______अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं विष्णुशिवगणेशसूर्यदुर्गार्चनं करिष्ये । 

सकाम संकल्प

_____ सर्वाभीष्टस्वर्गापवर्गफलप्राप्तिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं विष्णुशिवगणेशसूर्यदुर्गार्चनं करिष्ये । 

घण्टा पूजन

घण्टा को चन्दन और फूल से अलङ्कृत कर निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर प्रार्थना करे

आगमार्थं तु देवानां गमनार्थं च रक्षसाम्।
कुरु घण्टे वरं नादं देवतास्थानसंनिधौ॥

प्रार्थना के बाद घण्टा को बजाये और यथास्थान रख दे।

"घण्टास्थिताय गरुडाय नमः" 

इस नाममन्त्रसे घण्टेमें स्थित गरुडदेवका भी पूजन करे।

शङ्ख पूजन

शङ्खमें दो दर्भ या दूब, तुलसी और फूल डालकर 'ओम्' कहकर उसे सुवासित जलसे भर दे। इस जलको गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित कर दे। फिर निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर शङ्खमें तीर्थाका आवाहन करे

 पृथिव्यां यानि तीर्थानि स्थावराणि चराणि च।
 तानि तीर्थानि शङ्खेऽस्मिन् विशन्तु ब्रह्मशासनात्॥

तब ' शङ्खाय नमः , चन्दनं समर्पयामि '

 कहकर चन्दन लगाये और 

शङ्खाय नमः , पुष्पं समर्पयामि ' 

कह कर फूल चढ़ाये इसके बाद निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर शङ्ख को प्रणाम करे 

त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे।
निर्मितः सर्वदेवैश्च पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते॥

प्रोक्षण

शङ्खमें रखी हुई पवित्रीसे निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर अपने ऊपर तथा पूजाकी सामग्रियोंपर जल छिड़के ।

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

उदकुम्भकी पूजा

सुवासित जल से भरे हुए उदकुम्भ (कलश) की 'उदकुम्भाय नमः' इस मन्त्रसे चन्दन, फूल आदिसे पूजा कर इसमें तीर्थोका आवाहन करे 

ॐ कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः॥

कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः॥

अङ्गेश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः।
अत्र गायत्री सावित्री शान्तिः पुष्टिकरी तथा॥

 सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः।
आयान्तु देवपूजार्थं दुरितक्षयकारकाः॥

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु॥

इसके बाद निम्नलिखित मन्त्र से उदकुम्भ की प्रार्थना करे 

देवदानवसंवादे मथ्यमाने महोदधौ।
उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम्॥

त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः।
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः॥

शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः॥

त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः।
 त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं कर्तुमीहे जलोद्भव ।
 सांनिध्यं कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा ॥ 

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अब पञ्चदेवोंकी पूजा करे,सबसे पहले ध्यान करे

विष्णुका ध्यान 

उद्यत्कोटि दिवाकरा भमनिशं शङ्ख गदां पङ्कजं 
चक्रं बिभ्रतमिन्दिराव सुमतीसंशोभिपार्श्वद्वयम्।
कोटीराङ्गदहारकुण्डलधरं पीताम्बरं कौस्तुभैर्
र्दीप्तं विश्वधरं स्ववक्षसि लसच्छीवत्सचिह्नं भजे॥

ध्यानार्थे अक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ॐ विष्णवे नमः। 

उदीयमान करोड़ों सूर्यके समान प्रभातुल्य, अपने चारों हाथोंमें शङ्ख, गदा, पद्म तथा चक्र धारण किये हुए एवं दोनों भागोंमें भगवती लक्ष्मी और पृथ्वीदेवीसे सुशोभित, किरीट, मुकुट, केयूर, हार और कुण्डलोंसे समलङ्कृत,कौस्तुभमणि तथा पीताम्बरसे देदीप्यमान विग्रहयुक्त एवं वक्ष स्थलपर श्रीवत्सचिह्न धारण किये हुए भगवान् विष्णुका मैं निरन्तर स्मरण ध्यान करता हूँ।

 शिवका ध्यान 

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिर्भ चारुचन्द्रावतंसं 
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्। 
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणै र्व्यघ्रकृत्तिं वसानं 
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥ 

ध्यानार्थे अक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ॐ शिवाय नमः। 

चाँदीके पर्वतके समान जिनकी श्वेत कान्ति है, जो सुन्दर चन्द्रमाको आभूषण रूपसे धारण करते हैं, रत्नमय अलङ्कारोंसे जिनका शरीर उज्ज्वल है, जिनके हाथोंमें परशु, मृग, वर और अभय मुद्रा है, जो प्रसन्न हैं, पद्मके आसनपर विराजमान हैं, देवतागण जिनके चारों ओर खड़े होकर स्तुति करते हैं, जो बाघकी खाल पहनते हैं, जो विश्वके आदि जगत्की उत्पत्तिके बीज और समस्त भयोंको हरनेवाले हैं, जिनके पाँच मुख और तीन नेत्र हैं, उन महेश्वरका प्रतिदिन ध्यान करें। 

गणेशका ध्यान 

खर्व स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरं
प्रस्यन्दन्मद गन्धलुब्धम धुपव्यालोल गण्डस्थलम्। 
दन्ताघात विदारितारि रुधिरैः सिन्दूर शोभाकरं
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम्॥ 

ध्यानार्थे अक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ॐ श्रीगणेशाय नमः। 

जो नाटे और मोटे शरीरवाले हैं, जिनका गजराजके समान मुख और लम्बा उदर है, जो सुन्दर हैं तथा बहते हुए मदकी सुगन्धके लोभी भौरोके चाटनेसे जिनका गण्डस्थल चपल हो रहा है, दाँतोंकी चोटसे विदीर्ण हुए शत्रुओंके खूनसे जो सिन्दूरकी सी शोभा धारण करते है, कामनाओं के दाता और सिद्धि देनेवाले उन पार्वतीके पुत्र गणेशजीकी मैं वन्दना करता हूँ। 

सूर्यका ध्यान 

रक्ताम्बुजासनम शेषगुणैकसिन्धुं 
भानुं समस्तजगताम धिप भजामि।
 पद्मद्वया भय वरान् दधतं कराब्जै
 र्माणि क्यमौलिमरुणाङ्ग रुचिं त्रिनेत्रम्॥

 ध्यानार्थे अक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ॐ श्रीसूर्याय नमः। 

लाल कमलके आसनपर समासीन, सम्पूर्ण गुणोंके रत्नाकर, अपने दोनो हाथोंमें कमल और अभयमुद्रा धारण किये हुए, पद्मराग तथा मुक्ताफलके समान सुशोभित शरीरवाले, अखिल जगत्के स्वामी, तीन नेत्रोंसे युक्त भगवान् सूर्यका मैं ध्यान करता हूँ।

दुर्गाका ध्यान 

सिंहस्था शशिशेखरा मरकत प्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः
 शङ्ख चक्रधनुःशरांश्च दधती नेत्रस्त्रिभिः शोभिता।
आमुक्ताङ्ग दहारकङ्कणरणत्काञ्चीरणन्नूपुरा
 दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला॥ 

ध्यानार्थे अक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ॐ श्रीदुर्गायै नमः। 

जो सिंहकी पीठपर विराजमान हैं, जिनके मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट है, जो मरकतमणिके समान कान्तिवाली अपनी चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, तीन नेत्रोंसे सुशोभित होती हैं, जिनके भिन्न भिन्न अङ्ग बाँधे हुए बाजूबंद, हार, कङ्कण, खनखनाती हुई करधनी और रुनझुन करते हुए नूपुरोसे विभूषित हैं तथा जिनके कानोंमें रत्नजटित कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं, वे भगवती दुर्गा हमारी दुर्गति दूर करनेवाली हों।

 

अब हाथ में फूल लेकर आचाहन के लिये पुष्पाञ्जलि दे । 

पुष्पाञ्जलि

ॐ विष्णुशिवगणेशसूर्यदुर्गाभ्यो पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि । 

यदि पञ्चदेव की मूर्तियाँ न हो तो अक्षत पर इनका आवाहन करे, मन्त्र नीचे दिया है  निम्न कोष्ठक के अनुसार देवताओं को स्थापित करे 

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विष्णु - पञ्चायतन 

आवाहन

आगच्छन्तु सुरश्रेष्ठा भवन्त्वत्र स्थिराः समे।
यावत् पूजां करिष्यामि तावत् तिष्ठन्तु संनिधौ॥

ॐ विष्णुशिवगणेशसूर्यदुर्गाभ्यो नमः , आवाहनार्थे पुष्यं समर्पयामि । 

( पुष्प समर्पण करे )

आसन

अनेकरत्नसंयुक्तं नानामणिगणान्वितम्।
 कार्तस्वरमयं दिव्यमासनं परिगृह्यताम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः , आसनार्थे तुलसीदलं समर्पयामि । 

( तुलसीदल समर्पण करे । ) 

पाद्य

गङ्गादिसर्वतीर्थेभ्य आनीतं तोयमुत्तमम्।
पाद्यार्थ सम्प्रदास्यामि हृह्णन्तु परमेश्वराः॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः , पादयोः पाद्यं समर्पयामि । 

( जल अर्पण करे । ) 

अर्घ्य 

गन्धपुष्पाक्षतैर्युक्तमध्ये सम्पादितं मया।
गृह्णन्त्वर्घ्यं महादेवाः प्रसन्नाश्च भवन्तु में॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, हस्तयोरर्घ्य समर्पयामि। 

( गन्ध,पुष्प, अक्षत मिला हुआ अर्ध्य अर्पण करे) 

आचमन

कपूरण सुगन्धेन वासितं स्वादु शीतलम्।
तोयमा चमनी यार्थं गृह्णन्तु  परमेश्वराः॥ 

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, आचमनीयं जलं समर्पयामि। 

(कर्पूरसे सुवासित सुगन्धित शीतल जल समर्पण करे) 

स्नान

मन्दाकिन्याः समानीतैः कर्पूरागुरुवासितैः।
स्नानं कुर्वन्तु देवेशा जलैरेभिः सुगन्धिभिः॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, स्नानीयं जलं समर्पयामि। 

(शुद्ध जलसे स्नान कराये) 

आचमन

स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। 

(स्नान करानेके बाद आचमनके लिये जल दे) 

पञ्चामृत  स्नान

पयो दधि घृतं चैव मधु च शर्करान्वितम्।
पञ्चामृतं मयाऽऽनीतं स्नानार्थ प्रतिगृह्यताम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि।

 (पञ्चामृतसे स्नान कराये)

गन्धोदकस्नान

मलयाचलसम्भूतचन्दनेन विमिश्रितम्। 
इदं गन्धोदकं स्नानं कुङ्कुमाक्तं नु गृह्यताम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, गन्धोदकं समर्पयामि। 

(मलय चन्दनसे सुवासित जलसे स्नान कराये) 

गन्धोदकस्नानान्ते शुद्धोदकस्नानम्

(गन्धोदक स्नानके बाद शुद्ध जलसे स्नान कराये) 

शुद्धोदक स्नान

मलयाचल सम्भूतचन्दनाऽगरुमिश्रितम्।
सलिल देवदेवेश शुद्धस्नानाय गृह्यताम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः , शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि।

( शुद्धोदकसे स्नान करानेके बाद आचमन करनेके लिये पुनः जल चढ़ाये) 

आचमन

शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

वस्त्र और उपवस्त्र

शीतवातोष्णसंत्राणे लोकलज्जानिवारणे।
देहालङ्करणे वस्त्रे भवद्भ्यो वाससी शुभे॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, वस्त्रमुपवस्त्रं च समर्पयामि। 

( वस्त्र और उपवस्त्र चढ़ानेके बाद आचमनके लिये जल चढ़ाये) 

आचमन

वस्त्रोपवस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

यज्ञोपवीत

नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम्।
उपवीतं मया दत्तं गृह्णन्तु परमेश्वराः॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, यज्ञोपवीतं समर्पयामि। 

(यज्ञोपवीत चढ़ानेके बाद आचमनके लिये जल चढ़ाये) 

आचमन

यज्ञोपवीतान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

चन्दन

श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम्। 
विलेपनं सुरश्रेष्ठ   चन्दनं   प्रतिगृह्यताम्॥ 

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, चन्दनानुलेपनं समर्पयामि। 

(सुगन्धित मलय चन्दन लगाये)

पुष्पमाला

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि भक्तितः ।
मयाऽऽहतानि पुष्पाणि पूजार्थ प्रतिगृह्यताम् ॥

ॐ विष्णुपज्ञायतनदेवताभ्यो नमः, पुष्पाणि

 समर्पयामि। 

(मालती आदिके पुष्प चढ़ाये) 

तुलसीदल और मञ्जरी

तुलसी हेमरूपां च रत्नरूपां च मञ्जरीम्।
भवमोक्षप्रदां रम्यामर्पयामि हरिप्रियाम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, तुलसीदलं मञ्जरी च समर्पयामि। 

(तुलसीदल और तुलसी मञ्जरी समर्पण करे) 

( भगवान्के आगे चौकोर जलका घेरा डालकर उसमें नैवेद्यकी वस्तुओंको रखे तब धूप दीप निवेदन करे । ) 

धूप 

वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः।
आप्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्॥ 

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, धूपमाघ्रापयामि। 

(धूप दिखाये) 

दीप 

साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया।
दीपं गृह्णन्तु देवेशास्त्रैलोक्यतिमिरापहम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, दीपं दर्शयामि। 

(दीप दिखाये) 

हाथ धोकर नैवेद्य निवेदन करे 

नैवेद्य

शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च।
आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, नैवेद्यं निवेदयामि। 

(नैवेद्य निवेदित करे ) 

नैवेद्यान्ते ध्यानं ध्यानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। 

उत्तरापोऽशनार्थ हस्तप्रक्षालनार्थ मुखप्रक्षालनार्थं च जलं समर्पयामि। 

नैवेद्य देनेके बाद भगवान्का ध्यान करे 

(मानो भगवान् भोग लगा रहे है)

ध्यानके बाद आचमन करनेके लिये जल चढ़ाये और मुख प्रक्षालनके लिये तथा हस्त प्रक्षालनके लिये जल दे।

ऋतुफल

इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव। 
तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्पनि जन्पनि॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, ऋतुफलानि समर्पयामि मध्ये आचमनीयं उत्तरापोऽशनं च जलं समर्पयामि। 

(ऋतुफल अर्पण करे इसके बाद आचमन तथा उत्तरापोऽशनके लिये जल दे) 

ताम्बूल 

पूगीफलं महद् दिव्यं नागवल्लीदरलैर्युतम्।
एलालवंगसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, मुखवासार्थे ताम्बूलं समर्पयामि। 

(सुपारी, इलायची, लवंगके साथ पान चढ़ाये) 

दक्षिणा

हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीज विभावसोः।
अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, दक्षिणां समर्पयामि 

(दक्षिणा चढ़ाये)

 आरती

कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम्।
आरार्तिकमहं कुर्वे पश्य मां वरदो भव॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, आरार्तिकं समर्पयामि। 

(कर्पूरकी आरती करे और आरतीके बाद जल गिरा दे) 

शङ्ख  भ्रामण

शङ्खमध्ये स्थितं तोयं भ्रामितं केशवोपरि।
अङ्गलग्नं मनुष्याणां ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥

जल से भरे शङ्ख को पाँच बार भगवान्के चारों ओर घुमाकर शङ्ख को यथास्थान रख दे। भगवान्का अंगोछा भी घुमा दे। अब दोनों हथेलियों से आरती ले,  हाथ धो ले। शङ्ख के जल को अपने ऊपर तथा उपस्थित लोगों पर छिड़क दे । 

निम्नलिखित मन्त्र से चार बार परिक्रमा करे 

(परिक्रमा का स्थान न हो तो अपने आसन पर ही चार बार घूम जाय) 

प्रदक्षिणा

यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च। 
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे॥ 

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, प्रदक्षिणां समर्पयामि। 

(मन्त्र पढ़कर प्रदक्षिणा करे)

मन्त्रपुष्पाञ्जलि 

श्रद्धया सिक्तया भक्त्या हार्दप्रेम्णा समर्पितः।
मन्त्रपुष्पाञ्जलिश्चायं कृपया प्रतिगृह्यताम्॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः , मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि। 

(पुष्पाञ्जलि भगवान्के सामने अर्पण कर दे) 

नमस्कार

नमोऽस्त्व नन्ताय सहस्रमूर्तये
 सहस्र पादाक्षि शिरोरुबाहवे। 
सहस्र नाम्ने पुरुषाय शाश्वते
 सहस्रकोटी युग धारिणे नमः॥

ॐ विष्णुपञ्चायतनदेवताभ्यो नमः, प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान् समर्पयामि।

 (प्रार्थनापूर्वक नमस्कार करे) 

भक्तों को शतांश प्रदान करें

इसके बाद विष्वक्सेन , शुक आदि महाभागवतोंको नैवेद्यका शतांश निर्माल्य जलमें दे । 


इन श्लोकोंको पढ़कर या बिना पढ़े भी जलमें संतोंके उद्देश्यसे निर्माल्य दे दे । भगवान् और भक्तमें अन्तर नहीं होता । अतः उत्तम पक्ष यह है कि इन संतोंका नामोच्चारण हो जाय ।

चरणामृत पान

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥

(चरणामृतको पात्रमें लेकर ग्रहण करे  सिरपर भी चढ़ा ले) 

क्षमा याचना

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु में॥

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर॥

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम।
तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष मां परमेश्वर॥

(इन मन्त्रों का श्रद्धापूर्वक उच्चारण कर अपनी विवशता एवं त्रुटियों के लिये क्षमा -याचना करे) 

प्रसाद ग्रहण

भगवान पर चढ़े फूल को सिर पर धारण करे। पूजा से बचे चन्दन आदि को प्रसाद रूप से ग्रहण करे। अन्त में निम्नलिखित वाक्य पढ़कर समस्त कर्म भगवान् को समर्पित कर दे ॥


ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु

॥ॐ विष्णवे नमः,ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः॥

पाठविधिः

साधक भक्त को स्नान करके पवित्र हो कर आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके शुद्ध आसनपर बैठे और साथ में शुद्ध जल एवं पूजन सामग्री और श्री दुर्गासप्तशती पुस्तक रखे, पुस्तक को अपने सामने काष्ठ आदिके शुद्ध आसन पर विराजमान कर दे, ललाट में अपनी रुचि के अनुसार भस्म एवं चन्दन अथवा रोली लगा ले, शिखा बाँध ले, फिर पूर्वाभि मुख होकर तत्त्व शुद्धि के लिये चार बार आचमन करे, उस समय अग्रांकित चार मन्त्रों को क्रमशः पढ़े-

ॐ ऐं आत्म तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।

ॐ ह्रीं विद्या  तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।

ॐ क्लीं शिव तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्व तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।

तत्पश्चात् प्राणायाम करके गणेश,विष्णुपञ्चायतन देवता, नवग्रह, षोडषमातृका, सप्तधृतमातृका आदि देवताओं एवं गुरुजनों को पुजा कर प्रणाम करे; फिर पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ इत्यादि मन्त्र से कुशकी पवित्री धारण करके हाथ में पान का पत्ता, लाल फूल, अक्षत, तिल, जौ, सुपारी, लौग, इलाइचि और जल लेकर निम्नांकित रूप से संकल्प करें

ॐ विष्णुर् विष्णुर् विष्णुः ॐ नमः परमात्मने श्री पुराण पुरुषोत्तमस्य श्री विष्णो राज्ञया प्रवर्त मानस्याद्या श्री ब्राह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्री श्वेत वाराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरेऽष्टा विंशतितमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भारतखण्डे आर्या वर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तैक देशे पुण्य प्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानाम संवत्सरे अमुकायाने महा माङ्गल्य प्रदे मासानाम् उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुक तिथौ अमुक वासरे अमुक योगे अमुक राशि स्थिते सूर्ये अमुक नक्षत्रे अमुकामुक राशिस्थितेषु चन्द्रा,भौम,बुध,गुरु,शुक्र,शनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुण विशेषण विशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकल शास्त्र श्रुति,स्मृति,पुराणोक्त,फलप्राप्तिकामः अमुक गोत्रो उत्पन्नः अमुक शर्मा,वर्मा,दाषो अहं नाम उच्चारण ममात्मानः सपुत्र,स्त्री,बान्धवस्य, श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृत,राजकृत सर्व विघ्नपीडा निवृत्ति पूर्वकं नैरुज्य दीर्घायुः पुष्टि धन धान्य समृद्धयर्थं श्रीनवदुर्गा प्रसादेन सर्वापन्निवृत्ति सर्वाभीष्ट फला वाप्ति धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धिद्वारा श्री महाकाली,महालक्ष्मी,महासरस्वती देवता प्रीत्यर्थं दुर्गासप्तशती पाठं तदन्ते न्यास विधि सहित नवार्ण मंत्र जपं संकल्पं अहम् च करिष्ये।

इस प्रकार प्रतिज्ञा संकल्प करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से पुस्तक की पूजा करें योनि मुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करे, फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधार शक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें, इसके बाद शापोद्धार मन्त्र का जाप करना चाहिये।

इसके अनेक प्रकार हैंं।

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिका देव्यै शापनाशानु ग्रहं कुरु कुरु स्वाहा

इस मंत्र का आदि और अन्त में सात बार जप करें, यह शापोद्धार मंत्र कहलाता हैं, इसके अनन्तर उत्कीलन मंत्र का जप किया जाता हैं, इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस इक्कीस बार होता हैं, यह मन्त्र इस प्रकार हैं।

ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा 

इस के जप पश्चात आदि और अन्त में सात सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जप करना चाहिये, जो इस प्रकार हैं।

ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृत संजीवनि विद्ये मृत मुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा



श्रीदुर्गासप्तशती

अथ सप्तश्लोकी दुर्गा

शिव उवाच

देवि त्वं भक्त सुलभे सर्वकार्य विधायिनी।
कलौ हि कार्य सिद्धयर्थ मुपायं ब्रूहि यत्नतः॥
देव्युवाच
श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्ट साधनम्।
मया तवैव स्नेहे नाप्यम्बा स्तुतिः प्रकाश्यते॥

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्त श्लोकी स्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्रीमहाकाली,महालक्ष्मी,महासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः॥

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिम शेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्रय दुःख भयहारिणि का त्वदन्या
सर्वो पकार करणाय सदार्द्रचित्ता॥

सर्व मङ्गल मङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे।
सर्वस्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥

रोगान शेषान पहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलान भीष्टान्।
त्वामा श्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता हाश्रयतां प्रयान्ति॥

सर्वा बाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्या खिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यम स्मद्वैरि विनाशनम्॥

॥ इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा ॥

॥श्रीदुर्गायै नमः॥

ईश्वर उवाच 

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः।
 मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः॥

 सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी।
 अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥

 शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती।
 पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥

 अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी।
 वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता॥

 ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः॥

 विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना॥

 निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी ।
 मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी॥

 सर्वासुरविनाशा‌ च सर्वदानवघातिनी।
 सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी।
 कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः॥

 अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा।
 महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला॥

 अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी।
 नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥

 शिवदूती कराली अनन्ता परमेश्वरी।
 कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्।
 नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति॥

 धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च।
 चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम्॥

कुमारींअा पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्।
 पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम्॥

 तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि।
 राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात्॥

 गोरोचनालक्तककुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण।
 विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः॥

भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते।
 विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम्॥

इति श्रीविश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम्

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अथ देव्याः कवचम् 

अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः 

नमश्चण्डिकायै

 मार्कण्डेय उवाच 

यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् 
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥

ब्रह्मोवाच 

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् 
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥

प्रथमं शैलपुत्री द्वितीयं ब्रह्मचारिणी 
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति  
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥

नवमं सिद्धिदात्री नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः 
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे 
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥

तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे 
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं हि॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते। 
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥
 
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना 
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना। 
लक्ष्मी : पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना। 
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः 
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः। 
शङ्खचक्रं गदां शक्तिं हलं मुसलायुधम्॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव  
कुन्तायुधं त्रिशूलं शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। 
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां हिताय वै॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रेन महाघोरपराक्रमे 
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि 
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी 
प्रतीच्या वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी 
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना 
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥

अजिता वामपार्वे तु दक्षिणे चापराजिता 
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥

मालाधरी ललाटे भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी 
त्रिनेत्रा भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा नासिके॥

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोरवासिनी 
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥

नासिकायां सुगन्धा उत्तरोष्ठे चर्चिका 
अधरे चामृतकला जिह्वायां सरस्वती॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका 
घण्टिकां चित्रघण्टा महामाया तालुके॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला 
ग्रीवायां भद्रकाली पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी 
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु  
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी 
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥

नाभौ कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा 
पूतना कामिका मेढं गुदे महिषवाहिनी॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी। 
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥

गुल्फयोर्नारसिंही पादपृष्ठे तु तैजसी 
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥

नखान् दंष्ट्राकराली केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी 
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती 
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं मुकुटेश्वरी॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। 
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा 
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं समानकम् 
वज्रहस्ता मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥

रसे रूपे गन्धे शब्दे स्पर्श योगिनी 
सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥
 
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी 
यशः कीर्तिं लक्ष्मींच धनं विद्यां चक्रिणी॥

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्यशून्मे रक्ष चण्डिके॥ 
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्ग क्षेमकरी तथा 
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु 
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥

पदमेकं गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः 
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः 
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् 
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः 
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् 
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः 
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः 
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले 
भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा 
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥

ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः 
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले 
जपेत्सप्तशती चण्डी कृत्वा तु कवचं पुरा॥

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् 
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् 
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥

लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदतेॐ॥


इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम् ।

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अथ अर्गलास्तोत्रं 

ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीदेवता, श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः॥

ॐ नमश्चण्डिकायै॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतानिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥

मधुकैटभविद्राविविधातृवादे      नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे जथः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूमाक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

सुरासुर शिरोरत्ननि घृष्ट चरणेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

प्रचण्डदैत्यदर्पने चण्डिके प्रणताय मे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

हिमाचल सुतानाथ संस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

पत्नी मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
सतुसप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्ॐ॥

।इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम्।

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अथ कीलकस्तोत्रं 

 

ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहासरस्वती देवता, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।


ॐ नमश्चण्डिकायै॥ 


मार्कण्डेय उवाच 


ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे। 
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे॥

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम्। 
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः॥

सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि। 
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति॥

न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते। 
विना जाप्येन सिद्धयेत सर्वमुच्चाटनादिकम्॥

समग्राण्यपि सिद्ध्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्॥

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः। 
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम्॥

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेवं न संशयः। 
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः॥

ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति। 
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्॥

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्। 
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः॥

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते। 
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात्॥

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति। 
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः॥

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने। 
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम्॥

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः। 
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्॥

ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः। 
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैःॐ॥


। इति देव्याः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

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रात्रिसूक्तम् 

ॐ रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः।


ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः।
विश्वा अधि श्रियोऽधित॥

ओर्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्वतः।
ज्योतिषा बाधते तमः॥

निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती।
अपेदु हासते तमः॥

सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि।
वृक्षे न वसतिं वयः॥

नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः।
नि श्येनासश्चिदर्थिनः॥

यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूम्र्ये।
अथा नः सुतरा भव॥

उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित।
उष ऋणेव यातय॥

उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः।
रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥
 
ॐ विश्वेश्वरी जगद्धात्री स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥

॥ब्रह्मोवाच॥

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥

अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा॥

त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा॥

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये॥

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा॥

त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः शान्तिरेव च॥

खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा॥

सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी॥

यच्च किञ्चित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके।
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा॥

यया त्वया जगत्स्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥

विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्॥

सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥

प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरी॥

 ॥इति रात्रिसूक्तम्॥

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॥श्रीदुर्गायै नमः॥


अथ श्रीदुर्गासप्तशती


प्रथमोऽध्यायः

॥मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु कैटभ वधका प्रसंग सुनाना॥


विनियोगः

ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः, नन्दा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्, ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।


ध्यानम्

ॐ खड्गं चक्र गदेषु चापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्ख संदधती करैस्त्रिनयनां सवाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम्॥

ॐ नमश्चण्डिकायै 

ॐ ऐं  मार्कण्डेय उवाच

सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।
निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद् गदतो मम॥

महामायानुभावेन यथा मन्वन्तराधिपः।
स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः॥

स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः।
सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले॥

तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसान्।
बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तता॥

तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः।
न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः॥

ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत्।
आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः॥

अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः।
कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥

ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स भूपतिः।
एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम्॥

स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः।
प्रशान्तश्वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम्॥

तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः।
इतश्चंतश्च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे॥

सोऽचिन्तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टचेतनः।
मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत्॥

मद्भूत्यैस्तैरसद्वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा।
न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदामदः॥

मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते।
ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः॥

अनुवृत्ति ध्रुवं तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम्।
असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम्॥

संचितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति।
एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः॥

तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः।
स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चागमनेऽत्र कः॥

सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्॥

प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम्॥

वैश्य उवाच

समाधिर्नाम वैश्योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले॥

पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः।
विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥

वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः।
सोऽहंन वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम्॥

प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः।
किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं नु साम्प्रतम्॥

कथं ते किं नु सद्वृत्ता दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः॥

राजोवाच

यैर्निरस्तो भवांल्लुब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः॥
तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम्॥

वैश्य उवाच

एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्गतं वचः॥
किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः॥
यैः संत्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः॥

पतिस्वजनहार्द च हार्दि तेष्वेव मे मनः।
किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते॥

यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु।
तेषां कृते मे निःश्वासो दौर्मनस्यं च जायते॥

करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम्॥

मार्कण्डेय उवाच

ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ॥

समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः।
कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्ह तेन संविदम्॥

उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ॥

राजोवाच

भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत्।
दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना।
ममत्वं गतराज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि॥

जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम।
अयं च निकृत : पुत्रैर्दारैर्भूत्यैस्तथोज्झितः॥

स्वजनेन च संत्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति।
एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ॥

दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ।
तत्किमेतन्महाभाग यन्मोहो ज्ञानिनोरपि॥

ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता॥

ऋषिरुवाच

ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे॥

विषयश्च महाभाग याति चैवं पृथक् पृथक्।
दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे॥

केचिदिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः।
ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं तु ते न हि केवलम्॥

यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः।
ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्॥

मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः।
ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु॥

कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा।
मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति॥

लोभात्प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्यसि।
तथापि ममतावर्ते मोहगर्ते निपातिताः॥

महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा।
तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः॥

महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्।
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा॥

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।
तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्॥

सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥

संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी॥

राजोवाच

भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान्॥

ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च किं द्विज।
यत्प्रभावा च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा॥

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर॥

ऋषिरुवाच

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम्॥

तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम।
देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा॥

उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते।
योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥

आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्ते भगवान् प्रभुः।
तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ॥

विष्णुकर्णमलोद्भूतौ हन्तुं ब्रह्माणमुद्यतौ।
स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः॥

दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम्।
तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयस्थितः॥

विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम्।
विश्वेश्वरी जगद्धात्री स्थितिसंहारकारिणीम्॥

निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥

ब्रह्मोवाच

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारःस्वरात्मिका॥

सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः॥

त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥

त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने॥

तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये।
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः॥

महामोहा च भवती महादेवी महासुरी।
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी॥

कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा।
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा॥

लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः शान्तिरेव च।
खगिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा॥

शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा।
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी॥

परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी।
यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥

तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा।
यया त्वया जगत्स्त्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत॥

सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः।
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥

कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्।
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता॥

मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ।
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु॥

बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥

ऋषिरुवाच

एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा॥

विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ।
नेत्रास्य नासिका बाहु हृदयेभ्य स्तथोरसः॥

निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।
उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्दनः॥

एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ।
मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥

क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ।
समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः॥

पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः।
तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ॥

उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो वियतामिति केशवम्॥

श्रीभगवानुवाच

भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥
किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मम॥

ऋषिरुवाच

वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत्॥
विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः।
आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता॥

ऋषिरुवाच

तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता।
कृत्वा चक्रेण वैच्छिन्ने जघने शिरसी तयोः॥

एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम्।
प्रभावमस्या देव्यास्तुभूयः शृणु वदामि ते ऐंॐ॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुरायो सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः॥ १॥
उवाच १४, अर्धश्लोकाः२४, श्लोकाः६६ , एवमादितः॥ १०४॥

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द्वितीयोऽध्यायः

देवताओं के तेज से देवीका प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध

विनियोगः

ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः, शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजम्, वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः।

ध्यानम्

ॐ अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टा सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मी सरोजस्थिताम्॥

ॐ ह्रीं ऋषिरुवाच

देवा सुरम भूद्युद्धं पूर्णमब्द शत पुरा।
महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे॥

तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्।
जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः॥

ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्।
पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ॥

यथावृत्त तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।
त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम्॥

सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च।
अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति॥

स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि।
विचरन्ति यथा मात् र्या महिषेण दुरात्मना॥

एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्।
शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम॥

इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः।
चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ॥

ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।
निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥

अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।
निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥

अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।
ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्॥

अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥

यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्।
याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा॥

सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्।
वारुणेन च जोरू नितम्बस्तेजसा भुवः॥

ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदगुल्योऽर्कतेजसा।
वसूनां च कराङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥

तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।
नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥

भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।
अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥

ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः॥

शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्।
चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य स्वचक्रतः॥

शङ्ख च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः।
मारुतो दत्तवांश्चापं बाणपूर्णे तथेषुधी॥

वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य कुलिशादमराधिपः।
ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात्॥

कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ।
प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्॥

समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः।
कालश्च दत्तवान् खड्गं तस्याश्चर्म च निर्मलम्॥

क्षीरोदश्चामलं हारमजरे च तथाम्बरे।
चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च॥

अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।
नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥

अङ्गुलीयकरत्नानि समस्तास्वङ्गुलीषु च।
विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम्॥

अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दशनम्।
अम्लानपङ्कजां मालां शिरस्युरसि चापराम्॥

अददज्जलधिस्तस्यै पङ्कजं चातिशोभनम्।
हिमवान् वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च॥

ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः।
शेषश्च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम्॥

नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्।
अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा॥

सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः।
तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः॥

अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्।
चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्च चकम्पिरे॥

चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्च महीधराः।
जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम्॥

तुष्टुवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।
दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥

सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।
आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः॥

अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः।
स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥

पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्।
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्व्यानिःस्वनेन ताम्॥

दिशो भुजसहस्त्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्।
ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम्॥

शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम्।
महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः॥

युयुधे चामरश्चान्यैश्चतुरङ्गबलान्वितः।
रथानामयुतैः षड्भिरुदग्राख्यो महासुरः॥

अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः।
पञ्चाशद्भिश्च नियुतैरसिलोमा महासुरः॥

अयुतानां शतैः षड्भिर्बाष्कलो युयुधे रणे।
गजवाजिसहस्त्रौघैरनेकैः परिवारितः॥

वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत।
बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायतैः॥

युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः।
अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः॥

युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः।
कोटिकोटिसहस्त्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा॥

हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः।
तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥

युयुधुः संयुगे देव्या खड्गैः परशुपट्टिशैः।
केचिच्च चिक्षिपुः शक्ती : केचित्पाशांस्तथापरे॥

देवी खड्गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः।
सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका॥

लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी।
अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः॥

मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्वरी।
सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेसरी॥

चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः।
निःश्वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका॥

त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्त्रशः।
युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दि पालासिपट्टिशैः॥

नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्त्युपबंहिताः।
अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्खांस्तथापरे॥

मृदङ्गांश्च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।
ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः॥

खड्गादिभिश्च शतशो निजघान महासुरान्।
पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान्॥

असुरान् भुवि पाशेन बद्ध्वा चान्यानकर्षयत्।
केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्गपातैस्तथापरे॥

विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते।
वेमुश्च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः॥

केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि।
निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे॥

श्यनानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः।
केषांचिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥

शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः।
विच्छिन्नजङ्घास्त्वपरे पेतुरुव्र्यां महासुराः॥

एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः।
छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पनरुत्थिताः॥

कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः।
ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः॥

कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्गशक्त्यृष्टिपाणयः।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः॥

पातितै रथनागाश्वैरसुरैश्च वसुन्धरा।
अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः॥

शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुत्रुवुः।
मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥

क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका।
निन्ये क्षयं यथा वलिस्तृणदारुमहाचयम्॥

स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः।
शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति॥

देव्या गणैश्च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः।
यथैषां तुतुषुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचो दिविॐ॥


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
उवाच १, श्लोकाः ६८, एवम् ६ ९, एवमादितः॥१७३॥
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तृतीयोऽध्यायः

सेनापतियों सहित महिषासुर का वध

ध्यानम्

ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटी विद्यामभीतिं वरम्।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं
देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्॥

ॐ ऋषिरुवाच

निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः।
सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ यो योद्धुमथाम्बिकाम्॥

स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः।
यथा मेरुगिरेः शृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः॥

तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान्।
जधान तुरगान् बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम्॥

चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम्।
विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः॥

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः।
अभ्यधावत तां देवी खड्गचर्मधरोऽसुरः॥

सिंहमाहत्य खड्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि।
आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान्॥

तस्याः खड्गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन।
ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः॥

चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः।
जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात्॥

दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत।
तच्छूलं शतधा तेन नीतं स च महासुरः॥

हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ।
आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः॥

सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम्।
हुंकाराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम्॥

भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः।
चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत्॥

ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः।
बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा॥

युद्धयमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ।
युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥

ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा।
करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक्कृतम्॥

उदग्रश्च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः।
दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः॥

देवी क्रुद्धा गदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम्।
वाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्तानं तथान्धकम्॥

उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम्।
त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी॥

बिडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः।
दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम्॥

एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः।
माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान्॥

कांश्चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान्।
लाङ्गूलताडितांश्चान्याञ्छृङ्गाभ्यां च विदारितान्॥

वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च।
निःश्वासपवनेनान्यान् पातयामास भूतले॥

निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः।
सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका॥

सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः।
शृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च॥

वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत।
लाङ्गूलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः॥

धुतशृङ्गविभिन्नाश्च खण्डं खण्डं ययुर्घनाः।
श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः॥

इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम्।
दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत्॥

सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम्।
तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे॥

ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः।
छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत॥

तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः।
तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः॥

करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च।
कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत॥

ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः।
तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम्॥

ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम्।
पपौ पुन : पुनश्चैव जहासारुणलोचना॥

ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्धतः।
विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान्॥

सा च तान् प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः।
उवाच तं मदोद्धूतमुखरागाकुलाक्षरम्॥

देव्युवाच

गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम्।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः॥

ऋषिरुवाच

एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम्।
पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत्॥

ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः।
अर्धनिष्क्रान्त एवासीद् देव्या वीर्येण संवृतः॥

अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः।
तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः॥

ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत्।
प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः॥

तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॐ॥


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
उवाच ३, श्लोकाः ४१, एवम् ४४, एवमादितः २१७॥
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चतुर्थोऽध्यायः

इन्द्रादि देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति

ध्यानम्

ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शङ्ख चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्ती
ध्यायेद् दुर्गा जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥

ॐ ऋषिरुवाच

शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः॥

देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः॥

यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥

या श्री : स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य ललज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्॥

किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्
किं चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि।
किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि
सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु॥

हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषैर्
न ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा।
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूतम
व्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या॥

यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन
तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु
रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च॥

या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्वमभ्
यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः।
मोक्षार्थिभिर्मुनि भिरस्तसमस्तदोषैर्
विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि॥

शब्दात्मिका सुविमलग् र्यजुषां निधानमुद्गी
थरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥

मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा।
श्री : ककैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा॥

ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र
बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम्।
अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि
वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण॥

दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भृकुटीकराल
मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः।
प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं
कैर्जी व्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन॥

देवि प्रसीद परमा भवती भवाय
सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि।
विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेतन्
नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य॥

ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां
तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥

धम् र्याणि देवि सकलानि सदैव कर्माण्
यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति।
स्वर्ग प्रयाति च ततो भवतीप्रसादा
ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन॥

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्रयदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥

एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि॥

दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्।
लोकान् प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी॥

खङ्ग प्रभानिक रविस्फुरणैस्तथोग्रैः
शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम्।
यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड
योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत्॥

दुर्वृत्त वृत्त शमनं तव देवि शीलं
रूपं तथैतद विचिन्त्यमतुल्यमन्यैः।
वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणां
वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम्॥

केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य
रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र।
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि॥

त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा।
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्तम
स्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते॥

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥

प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि॥

सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥

खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः॥

ऋषिरुवाच

एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः।
अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः॥

भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैधूंपैस्तु धूपिता।
प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान्॥

देव्युवाच

व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम्॥

देवा ऊचुः

भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते॥

यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः।
यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि॥

संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।
यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने॥

तस्य वित्तद्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके॥

ऋषिरुवाच

इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः।
तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप॥

इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा।
देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी॥

पुनश्च गौरीदेहात्सा समुद्भूता यथाभवत्।
वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः॥

रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी।
तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते ह्रीं ॐ॥


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
उवाच५, अर्धश्लोकौ२, श्लोकाः३५, एवम्४२ , एवमादितः२५९॥
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पञ्चमोऽध्यायः

देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड मुण्डके मुखसे अम्बिका रूपकी
के रूपकी प्रशंसा सुनकर शुम्भका उनके पास दूत
भेजना और दूतका निराश लौटना

विनियोगः

ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रुद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप् छन्दः,
भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्,
महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।

ध्यानम्

ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥

ॐ क्लीं ऋषिरुवाच

पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्याम सुराभ्यां शचीपतेः।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात्॥

तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम्।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥

तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः॥

हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम्॥

तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥

इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्वरम्।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥

देवा ऊचुः

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु या बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥

देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु या देवी श्रद्धारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै नमो नमः॥

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रया
तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै
रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः
सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥

ऋषिरुवाच

एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥

साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।
शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥

स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः॥

शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥

तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥

ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥

ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥

नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर॥

स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशास्त्विषा।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥

यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥

ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्।
पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैः श्रवा हयः॥

विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे।
रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥

निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वरात्।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम्॥

छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्त्रावि तिष्ठति।
तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥

मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥

निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः।
वह्निरपि ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥

एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते।
स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥

ऋषिरुवाच

निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्॥

इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघ॥

स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने।
सा देवी तां ततः प्राह श्लक्ष्णं मधुरया गिरा॥

दूत उवाच

देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः॥

अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह शृणुष्व तत्॥

मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः।
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक्॥

त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः।
तथैव गजरत्नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम्॥

क्षीरोद मथनोद्भूत मश्वरत्नं ममामरैः।
उच्चैःश्रवससंजं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥

यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।
रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥

स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम्॥

मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।
भज त्वं चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः॥

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।
एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥

ऋषिरुवाच

इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तः स्मिता जगौ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत्॥

देव्युवाच

सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः॥

किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥

यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥

तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥

दूत उवाच

अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥

अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥

इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥

सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पाशर्वं शुम्भनिशुम्भयोः।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥

देव्युवाच

एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चातिवीर्यवान्।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥

स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत् ॐ॥


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या दूतसंवादा नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
उवाच९, त्रिपान्मन्त्राः६६, श्लोकाः५४, एवम्१२९, एवमादितः ३८८॥

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षष्ठोऽध्यायः

धूम्रलोचन वध

ध्यानम्

ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली
भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम्।
मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां
सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये॥

ॐ ऋषिरुवाच

इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोऽमर्षपूरितः।
समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात्॥

तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकर्ण्यासुरराद् ततः।
सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम्॥

हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारितः।
तामानय बलाद् दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम्॥

तत्परित्राणदः कश्चिद्यदि वोत्तिष्ठतेऽपरः।
स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा॥

ऋषिरुवाच

तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्यो धूम्रलोचनः।
वृतः षष्ट्या सहस्त्राणामसुराणां द्रुतं ययौ॥

स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तुहिनाचलसंस्थिताम्।
जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः॥

न चेत्प्रीत्याद्य भवती मद्भर्तारमुपैष्यति।
ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम्॥

देव्युवाच

दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान् बलसंवृतः।
बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम्॥

ऋषिरुवाच

इत्युक्तः सोऽभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः।
हुंकारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका ततः॥

अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका।
ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्तिपरश्वधैः॥

ततो धुतसट : कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम्।
पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहनः॥

कांश्चित् करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान्।
आक्रम्य चाधरेणान्यान् स जघान महासुरान्॥

केषांचित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केसरी।
तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक॥

विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे।
पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः॥

क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना।
तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना॥

श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम्।
बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः॥

चुकोप दैत्याधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः।
आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ॥

हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुभिः परिवारितौ।
तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु॥

केशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि।
तदाशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम्॥

तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते।
शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम् ॐ॥


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये 
शुम्भनिशुम्भसेनानीधूम्रलोचनवधो नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
उवाच४, श्लोकाः२०, एवम् २४, एवमादितः ४१२॥
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सप्तमोऽध्यायः

चण्ड और मुण्डका वध

ध्यानम्

ॐध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं
न्यस्तैकाङ्घ्रि सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥

ॐ ऋषिरुवाच

आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः।
चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः

ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने॥

ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः।
आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः॥

ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति।
कोपेन चास्या वदनं मषीवर्णमभूत्तदा॥

भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्रुतम्।
काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी॥

विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा॥

अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा॥

सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान्।
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम्॥

पाणिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान्।
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान्॥

तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह।
निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्र्त्यतिभैरवम्॥

एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम्।
पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत्॥

तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः।
मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि॥

बलिनां तद् बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम्।
ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा॥

असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः।
जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा॥

क्षणेन तद् बलं सर्वमसुराणां निपातितम्।
दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम्॥

शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः।
छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्त्रशः॥

तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम्।
बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम्॥

ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी।
 कालीकरालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला॥

उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत।
गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत्॥

अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।
तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा॥

हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।
मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम्॥

शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च।
प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम्॥

मया तवात्रोपहृतौ चण्डमुण्डौ महापशू।
युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि॥

ऋषिरुवाच

तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ।
उवाच काल कल्याणी ललितं चण्डिका वचः॥

यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि ॐ॥


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
उवाच२, श्लोकाः२५, एवम्२७, एवमादितः४३९॥
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अष्टमोऽध्यायः

रक्तबीज वध

ध्यानम्

ॐ अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं
धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखै
रहमित्येव विभावये भवानीम्॥

ॐ ऋषिरुवाच

चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः॥

ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान्।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह॥

अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः।
कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः॥

कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै।
शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया॥

कालका दौर्हृदा मौर्याः कालकेयास्तथासुराः।
युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम॥

इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः।
निर्जगाम महासैन्यसहस्त्रैर्बहुभिर्वृतः॥

आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा तत्सैन्यमतिभीषणम्।
ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम्॥

ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप।
घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका चोपबृंहयत्॥

धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मुखा।
निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना॥

तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम्।
देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः॥

एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम्।
भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः॥

ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः।
शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः॥

यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम्।
तद्वदेव हि तच्छक्तिरसुरान् योद्धुमाययौ॥

हंसयुक्तविमानाने साक्षसूत्रकमण्डलुः।
आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते॥

माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी।
महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभषणा॥

कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना।
योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी॥

तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता।
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखड्गहस्ताभ्युपाययौ॥

यज्ञवाराहमतुलं रूपं या बिभ्रतो हरेः।
शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम्॥

नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः।
प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः॥

वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता।
प्राप्ता सहस्त्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा॥

ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभिः।
हहन्यन्तामसुगःशीघ्रं मम प्रीत्याऽऽह चण्डिकाम्॥

ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा।
चण्डिकाशक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी॥

सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता।
दूत त्वं गच्छ भगवन् पाश्र्वं शुम्भनिशुम्भयोः॥

ब्रूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ।
ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः॥

त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ॥

बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः॥

यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम्।
शिवदूतीति लोकेऽस्मिस्ततः सा ख्यातिमागता॥

तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः।
अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र कात्यायनी स्थिता॥

ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः।
ववर्षरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः॥

सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान्।
चिच्छेद लीलयाऽऽध्यातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः॥

तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्।
खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन् कुर्वती व्यचरत्तदा॥

कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः।
ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून् येन येन स्म धावति॥

माहेश्वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी।
दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना॥

ऐन्द्रीकुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः।
पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः॥

तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः।
वाराहमूर्त्या न्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः॥

नखैर्विदारितांश्चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान्।
नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा॥

चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः।
पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा॥

इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान्।
दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः॥

पलायनपरान् दृष्ट्वा दैत्यान् मातृगणार्दितान्।
योद्धमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः॥

रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः।
समुत्पतति मेदिन्यां तत्प्रमाणस्तदासुरः॥

युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः।
ततश्चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत्॥

कुलिशेनाहतस्याशु बहु सुस्त्राव शोणितम्।
समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः॥

यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः।
तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥

ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः।
समं मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम्॥

पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्त्रशः॥

वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह।
गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम्॥

वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्त्रावसम्भवैः।
सहस्त्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः॥

शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासिना।
माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम्॥

स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक्।
मातृः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः॥

तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि।
पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥

तैश्चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत्।
व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम्॥

तान् विषण्णान सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरा।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं वदनं कुरु॥

मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान्।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना॥

भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति॥

भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम्॥

मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम्।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम्॥

न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम्॥

यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति।
मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः॥

तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्।
देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिरृष्टिभिः॥

जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम्।
स पपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः॥

नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः।
ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥

तेषां मातृगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः ॐ॥



इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म् रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः॥ ८॥
उवाच१, अर्धश्लोकः१, श्लोकाः६१, एवम्६३, एवमादितः॥ ५०१॥

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नवमोऽध्यायः

निशुम्भ वध

ध्यानम्

बन्धुककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि॥

ॐ राजोवाच

विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम।
देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम्॥

भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते।
चकार शम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः॥

ऋषिरुवाच

चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते।
शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे॥

हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन्।
अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेनया॥

तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुराः।
संदष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः॥

आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः।
निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः॥

ततो युद्धमतीवासीद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः।
शरवर्ष मतीवोग्रं मेघयो रिव वर्षतोः॥

चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः।
ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैर सरेश्वरौ॥

निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चादाय सुप्रभम्।
अताडयन्मूर्धिन सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम्॥

ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम्।
निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम्॥

छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः।
तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम्॥

कोपाध्यातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः।
आयातं मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत्॥

आविध्याथ गदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति।
सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता॥

ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्गवम्।
आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले॥

तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे।
भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम्॥

स रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः।
भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं बभौ नभः॥

तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत्।
ज्याशब्दं चापि धनुषश्चकारातीव दुःसहम्॥

पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च।
समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना॥

ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः।
पूरयामास गगनं गां तथैव दिशो दश॥

ततः काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत्।
कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः॥

अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह।
तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ॥

दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा।
तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः॥

शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा।
आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया॥

सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम्।
निर्घातनि : स्वनो घोरो जितवानवनीपते॥

शुम्भमुक्ताञ्छरान्देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान्।
चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः॥

ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम्।
स तदाभिहतो भूमौ मूच्छितो निपपात ह॥

ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः।
आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा॥

पुनश्च कृत्वा बाहूनामयुतं दनुजेश्वरः।
चक्रायुधेन दितिजश्छादयामास चण्डिकाम्॥

ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी।
चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैः सायकांश्च तान्॥

ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम्।
अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः॥

तस्यापतत एवाशु गदां चिच्छेद चण्डिका।
खड्गेन शितधारेण स च शूलं समाददे॥

शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरार्दनम्।
हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका॥

भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोऽपरः।
महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन॥

तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः।
शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसावपतद्भुवि॥

ततः सिंहश्चखादोग्रं दंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान्।
असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान्॥

कौमारीशक्तिनिर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः।
ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः॥

माहेश्वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे।
वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णीकृता भुवि॥

खण्डं खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः।
वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे॥

केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात्।
भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः ॐ॥



इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥
उवाच२, श्लोकाः ३९,एवम् ४१, एवमादितः५४३॥

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दशमोऽध्यायः

शुम्भ वध

ध्यानम्

ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि
नेत्रां धनुश्शरयुताङ्कुशपाशशूलम्।
रम्यैर्भुजैश्च दधतीं शिवशक्तिरूपां
कामेश्वरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्॥

ॐ ऋषिरुवाच

निशुम्भं निहतं दृष्ट्वा भ्रातरं प्राणसम्मितम्।
हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः॥

बलावलेपाहुष्टे त्वं मा दुर्गे गर्वमावह।
अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी॥

देव्युवाच

एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा।
पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः॥

ततः समस्तास्ता देव्यो ब्रह्माणीप्रमुखा लयम्।
तस्या देव्यास्तनौ जग्मुरेकैवासीत्तदाम्बिका॥

देव्युवाच

अहं विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता।
तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव॥

ऋषिरुवाच

ततः प्रववृते युद्धं देव्याः शुम्भस्य चोभयोः।
पश्यतां सर्वदेवानामसुराणां च दारुणम्॥

शरवर्षैः शितैः शस्त्रैस्तथास्त्रैश्चैव दारुणैः।
तयोर्युद्धमभृद्भूयः सर्वलोकभयङ्करम्॥

दिव्यान्यस्त्राणि शतशो मुमुचे यान्यथाम्बिका।
बभञ्ज तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः॥

मुक्तानि तेन चास्त्राणि दिव्यानि परमेश्वरी।
बभञ्ज लीलयैवोग्रर्हुङ्कारोच्चारणादिभिः॥

ततः शरशतैर्देवीमाच्छादयत सोऽसुरः।
सापि तत्कुपिता देवी धनुश्चिच्छेद चेषुभिः॥

छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रस्तथा शक्तिमथाददे।
चिच्छेद देवी चक्रेण तामप्यस्य करे स्थिताम्॥

ततः खड्गमुपादाय शतचन्द्रं च भानुमत्।
अभ्यधावत्तदा देवीं दैत्यानामधिपेश्वरः॥

तस्यापतत एवाशु खड्गं चिच्छेद चण्डिका।
धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्चर्म चार्ककरामलम्॥

हताश्वः स तदा दैत्यश्छिन्नधन्वा विसारथिः।
जग्राह मुद्गरं घोरमम्बिकानिधनोद्यतः॥

चिच्छेदापततस्तस्य मुद्गरं निशितैः शरैः।
तथापि सोऽभ्यधावत्तां मुष्टिमुद्यम्य वेगवान्॥

स मुष्टि पातयामास हृदये दैत्यपुङ्गवः।
देव्यास्तं चापि सा देवी तलेनोरस्यताडयत्॥

तलप्रहाराभिहतो निपपात महीतले।
स दैत्यराजः सहसा पुनरेव तथोत्थितः॥

उत्पत्य च प्रगृह्योच्चैर्देवीं गगनमास्थितः।
तत्रापि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका॥

नियुद्धं खे तदा दैत्यश्चण्डिका च परस्परम्।
चक्रतुः प्रथमं सिद्धमुनिविस्मयकारकम्॥

ततो नियुद्धं सुचिरं कृत्वा तेनाम्बिका सह।
उत्पात्य भ्रामयामास चिक्षेप धरणीतले॥

स क्षिप्तो धरणीं प्राप्य मुष्टिमुद्यम्य वेगितः।
अभ्यधावत दुष्टात्मा चण्डिकानिधनेच्छया॥

तमायान्तं ततो देवी सर्वदैत्यजनेश्वरम्।
जगत्यां पातयामास भित्त्वा शूलेन वक्षसि॥

स गतासुः पपातोर्व्या देवीशूलाग्रविक्षतः।
चालयन् सकलां पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम्॥

ततः प्रसन्नमखिलं हते तस्मिन् दुरात्मनि।
जगत्स्वास्थ्यमतीवाप निर्मलं चाभवन्नभः॥

उत्पातमेघाः सोल्का ये प्रागासंस्ते शमं ययुः।
सरितो मार्गवाहिन्यस्तथासंस्तत्र पातिते॥

ततो देवगणाः सर्वे हर्षनिर्भरमानसाः।
बभूवुर्निहते तस्मिन् गन्धर्वा ललितं जगुः॥

अवादयंस्तथैवान्ये ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
ववुः पुण्यास्तथा वाताः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः॥

जज्वलुश्चाग्नयः शान्ताः शान्ता दिग्जनितस्वनाः ॐ॥



इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शुम्भवधो नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
उवाच ४, अर्धश्लोकः१, श्लोकाः२७, एवम्३२, एवमादितः५७५॥
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एकादशोऽध्यायः

देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीद्वारा देवताओंको वरदान

ध्यानम्

ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥

ॐ ऋषिरुवाच

देव्या हते तत्र महासुरेन्द्र
सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम्।
कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्
विकाशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः॥

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥

आधारभूता जगतस्त्वमेका
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत
दाप्यायते कृत्स्नमलयवीर्ये॥

त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥

सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि।
विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते॥

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

शरणागतदी नार्त परित्राण परायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि।
कौशाम्भः क्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि।
माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते॥

मयुर कुक्कुट वृते महाशक्ति धरेऽनघे।
कीमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते॥

शङ्ख चक्र गदा शार्ङ्ग गृहीत पर मायुधे।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते॥

गृहीतोग्र महाचक्रे दंष्ट्रोद धृत वसुंधरे।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते॥

नृसिंहरूपेणो ग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते॥

किरीटिनि महावज्रे सहस्त्रनयनोज्ज्वले।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते॥

दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते॥

लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे ध्रुवे।
महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते॥

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥

एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥

ज्वाला कराल मत्युग्रम शेषासुर सूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव॥

असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः।
शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम्॥

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥

एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम्।
रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्ति
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या॥

विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे
ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्॥

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥

विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिननाः॥

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते
र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः।
पापानि सर्वजगतां प्रयाशु नयाशु
उत्पात पाकजनितांश्च मोपसर्गान्॥

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव॥

देव्युवाच

वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम्॥

देवा ऊचुः

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥

देव्युवाच

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥

नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥

पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान्॥

भक्षयन्त्याश्च तानुग्रान् वैप्रचित्तान्मासुरान्।
रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः॥

ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः।
स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम्॥

भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥

ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः॥

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥

शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि।
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥

दुर्गा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।
पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले॥

रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात्।
तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः॥

भीमा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।
यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति॥

तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंख्येयषट्पदम्।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्॥

भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति॥

तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ॐ॥



इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्याः स्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥ ११॥
उवाच ४, अर्धश्लोकः १, श्लोकाः ५०, एवम् ५५, एवमादितः ६३०॥

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द्वादशोऽध्यायः

देवी चरित्रों के पाठका माहात्म्य

ध्यानम्

ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गा त्रिनेत्रां भजे॥

ॐ देव्युवाच

एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः।
तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम॥

मधुकैटभनाश च महिषासुरघातनम्।
कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद् वधं शुम्भनिशुम्भयोः॥

अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः।
श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुत्तमम्॥

न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद् दुष्कृतोत्था न चापदः।
भविष्यति न दारिद्र्यं न चैवेष्टवियोजनम्॥

शत्रुतो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः।
न शस्त्रानलतोयौघात्कदाचित्सम्भविष्यति॥

तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः।
श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं हि तत्॥

उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान्।
तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम॥

यत्रैतत्पठ्यते सम्य ङ्नित्यमायतने मम।
सदा न तद्विमोक्ष्यामि सांनिध्यं तत्र मे स्थितम्॥

बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे।
सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च॥

जानताऽजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम्।
प्रतीच्छिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथा कृतम्॥

शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः॥

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥

श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः।
पराक्रमं च यद्धेष जायते निर्भयः पुमान्॥

रिपवः संक्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते।
नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम शृण्वताम्॥

शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने।
ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम॥

उपसर्गाः शमं यान्ति ग्रहपीडाश्च दारुणाः।
दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते॥

बालग्रहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम्।
संघातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम्॥

दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम्।
रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम्॥

सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम्।
पशुपुष्पार्घ्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः॥

विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम्।
अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या॥

प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृत्सुचरिते श्रुते।
श्रुतं हरति पापानि तथाऽऽरोग्यं प्रयच्छति॥

रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम।
युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम्॥

तस्मिञ्छ्रते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते।
युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः॥

ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्ति शुभां मतिम्।
अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः॥

दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः।
सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः॥

राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे॥

पतत्सु चापि शस्त्रेषु संग्रामे भृशदारुणे।
सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा॥

स्मरन्ममैतच्चरितं नरो मुच्येत संकटात्।
मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा॥

दूरा देव पला यन्ते स्मरतश्चरितं मम॥

ऋषिरुवाच

इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा॥

पश्यतामेव देवानां तत्रैवान्तरधीयत।
तेऽपि देवा निरातङ्काः स्वाधिकारान् यथा पुरा॥

यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः।
दैत्याश्च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि॥

जगद्विध्वंसिनि तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे।
निशुम्भे च महावीर्ये शेषाः पातालमाययुः॥

एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः।
सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम्॥

तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते।
सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति॥

व्याप्तं तयैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्वर।
महाकाल्या महाकाले महामारीस्वरूपया॥

सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा।
स्थितिं करोति भूतानां सैव काले सनातनी॥

भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे।
सैवाभावे तथाऽलक्ष्मीर्विनाशायोपजायते॥

स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्धूपगन्धादिभिस्तथा।
ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं शुभाम् ॐ॥


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये फलस्तुतिर्नाम द्वादशोऽध्यायः॥ १२॥
उवाच२, अर्धश्लोकौ२, श्लोकाः३७, एवम् ४१, एवमादितः ६७१॥

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त्रयोदशोऽध्यायः

सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान

ध्यानम्

बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥

ॐ ऋषिरुवाच

एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम्।
एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥

विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया।
तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः॥

मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे।
तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्॥

आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥

मार्कण्डेय उवाच

इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः॥

प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं शंसितव्रतम्।
निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च॥

जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने।
संदर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः॥

स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन्।
तौ तस्मिन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्॥

अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः।
निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ॥

ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्।
एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥

परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका॥

देव्युवाच

यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन।
मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥

मार्कण्डेय उवाच

ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि।
अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात्॥

सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम्॥

देव्युवाच

स्वल्यैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान्॥

हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति॥

मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः॥

सावर्णिको नाम मनुर्भवान् भुवि भविष्यति॥

वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः॥

तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति॥

मार्कण्डेय उवाच

इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम्॥

बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता।
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः॥

सूर्याज्जन्म समासाद्य सावणिर्भविता मनुः॥

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः।
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः क्लीं ॐ॥

इति श्री मार्कण्डेय पुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवी माहात्म्ये सुरथ वैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
उवाच६, अर्धश्लोकाः ११, श्लोकाः १२, एवम् २९  एवमादितः ७०० समस्ता उवाचमन्त्राः ५७, अश्लोकाः ४२ श्लोकाः ५३५ अवदानानि ॥६६॥

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श्रीदुर्गामानस पूजा

उद्यच्चन्दनकुङ्कुमारुण पयोधाराभिराप्लावितां
नानानर्घ्य मणिप्रवालघटितां दत्तां गृहाणाम्बिके।
आमृष्टां सुरसुन्दरीभिरभितो हस्ताम्बुजैर्भक्तितो
मातः सुन्दरि भक्तकल्पलतिके श्रीपादुकामादरात्॥

देवेन्द्रादि भिरर्चितं सुरगणैरादाय सिंहासनं
चञ्चत्काञ्चन संचयाभिरचितं चारुप्रभाभास्वरम्।
एतच्चम्पककेतकीपरिमलं तैलं महानिर्मलं
गन्धोद्वर्तनमादरेण तरुणीदत्तं गृहाणाम्बिके॥

पश्चादेवि गृह्मण शम्भुगृहिणि श्रीसुन्दरि प्रायशो
गन्ध द्रव्य समूहनिर्भरतरं धात्रीफलं निर्मलम्।
तत्केशान् परिशोध्य कङ्कतिकया मन्दाकिनीस्त्रोतसि
स्नात्वा प्रोज्ज्वलगन्धकं भवतु हे श्रीसुन्दरि त्वन्मुदे॥

सुराधिपति कामिनी कर सरोज नालीधृतां
सचन्दनसकुङ्कुमागुरुभरेण विभ्राजिताम्।
महापरिमलोज्ज्वलां सरसशुद्धकस्तूरिकां
गृहाण वरदायिनि त्रिपुरसुन्दरि श्रीप्रदे॥

गन्धर्वामरकिन्नरप्रियतमासंतानहस्ताम्बुज
प्रस्तारैर्ध्रियमाणमुत्तमतरं काश्मीरजापिञ्जरम्।
मातर्भास्वरभानुमण्डललसत्कान्तिप्रदानोज्ज्वलं
चैतन्निर्मलमातनोतु वसनं श्रीसुन्दरि त्वन्मुदम्॥

स्वर्णाकल्पितकुण्डले श्रुतियुगे हस्ताम्बुजे मुद्रिका
मध्ये सारसना नितम्बफलके मञ्जीरमङ्घ्रिद्वये।
हारो वक्षसि कङ्कणौ क्वणरणत्कारौ करद्वन्द्वके
विन्यस्तं मुकुटं शिरस्यनुदिनं दत्तोन्मदं स्तूयताम्॥

ग्रीवायां धृतकान्तिकान्तपटलं ग्रैवेयकं सुन्दरं
सिन्दूरं विलसल्ललाटफलके सौन्दर्यमुद्राधरम्।
राजत्कज्ञ्जलमुज्ज्वलोत्पलदल श्रीमोचने लोचने
तद्दिव्यौषधिनिर्मितं रचयतु श्रीशाम्भवि श्रीप्रदे॥

अमन्दतरमन्दरोन्मथितदुग्धसिन्धूद्धवं
निशाकरकरोपमं त्रिपुरसुन्दरि श्रीप्रदे।
गृहाण मुखमीक्षितुं मुकुरबिम्बमाविद्रुमैर्
विनिर्मितमच्छिदे रतिकराम्बुजस्थायिनम्॥

कस्तूरीद्रवचन्दनागुरुसुधाधाराभिप्लावितं
चञ्चच्चम्पकपाटलादिसुरभिद्रव्यैः सुगन्धीकृतम्।
देवस्त्रीगणमस्तकस्थितमहारत्नादिकुम्भव्रजै
रम्भः शाम्भवि संभ्रमेण विमलं दत्तं गृहाणाम्बिके॥

कह्लारोत्पलनागकेसरसरोजाख्यावलीमालती
मल्लीकैरवकेतकादिकुसुमै रक्ताश्वमारादिभिः।
पुष्पैर्माल्यभरेण वै सुरभिणा सस्त्रोतसा
ताम्राम्भोजनिवासिनीं भगवतीं श्रीचण्डिकां पूजये॥

मांसीगुग्गुलचन्दनागुरुरज : कर्पूरशैलेयजैर्
माध्वीकैः सह कुङ्कुमैः सुरचितैः सर्पिभिरामिश्रितैः।
सौरभ्यस्थितिमन्दिरे मणिमये पात्रे भवेत् प्रीतये
धूपोऽयं सुरकामिनीविरचितः श्री चण्डिके त्वन्मुदे॥

घृतद्रवपरिस्फुरद्रुचिररत्नयष्ट्यान्वितो
महातिमिरनाशनः सुरनितम्बिनीनिर्मितः।
सुवर्णचषकस्थितः सघनसारवर्त्यान्वित
स्तव त्रिपुरसुन्दरि स्फुरति देवि दीपो मुदे॥

जातीसौरभनिर्भरं रुचिकरं शाल्योदनं निर्मलं
युक्तं हिङ्गुमरीचजीरसुरभिद्रव्यान्वितैर्व्यञ्जनैः।
पक्वान्नेन सपायसेन मधुना दध्याज्यसम्मिश्रितं
नैवेद्यं सुरकामिनीविरचितं श्रीचण्डिके त्वन्मुदे॥

लवङ्गकलिकोज्ज्वलं बहुलनागवल्लीदलं
सजातिफलकोमलं सघनसारपूगीफलम्।
सुधामधुरिमाकुलं रुचिररत्नपात्रस्थितं
गृहाण मुखपङ्कजे स्फुरितमम्ब ताम्बूलकम्॥

शरत्प्रभवचन्द्रमः स्फुरितचन्द्रिकासुन्दरं
गलत्सुरतरङ्गिणीललितमौक्तिकाडम्बरम्
गृहाण नवकाञ्चनप्रभवदण्डखण्डोज्ज्वलं
महात्रिपुरसुन्दरि प्रकटमातपत्रं महत्॥

मातस्त्वन्मुदमातनोतु सुभगस्त्रीभिः सदाऽऽन्दोलितं
शुभ्रं चामरमिन्दुकुन्दसदृशं प्रस्वेददुःखापहम्।
सद्योऽगस्त्यवसिष्ठनारदशुकव्यासादिवाल्मीकिभिः
स्वे चित्ते क्रियमाण एवं कुरुतां शर्माणि वेदध्वनिः॥

स्वर्गाङ्गणे वेणुमृदङ्गशङ्गभेरीनिनादैरुपगीयमाना।
कोलाहलैराकलिता तवास्तु विद्याधरीनृत्यकला सुखाय॥

देवि भक्तिरसभावितवृत्ते प्रीयतां यदि कुतोऽपि लभ्यते ।
तत्र लौल्यमपि सत्फलमेकं जन्मकोटिभिरपीह न लभ्यम्॥

एतै : षोडशभिः पद्यैरुपचारोपकल्पितैः।
यः परां देवतां स्तौति स तेषां फलमाप्नुयात्॥


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देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं 

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यान तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥

विधेर ज्ञानेन द्रविण विरहेणा लसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥

परित्यक्ता देवा विविध विधिसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीते रधिक मपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटि कनकैः।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ॥

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैक पदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥

न मोक्षस्याकाङ्गा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञा ना पेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः॥

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्षचिन्तन परैर्न कृतं वचोभिः।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव॥

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥

जगदम्ब विचित्रमत्र किं
परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।
अपराध  परम्परा  परं 
न हि माता समुपेक्षते सुतम्॥

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥

॥इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

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आरती

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशिदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

माँग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को।
उज्ज्वल से दोउ नयना, चन्द्रवदन नीको॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर राजे।
रक्तपुष्प गलमाला, कण्ठ पर साजे॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी। 
सुर नर मुनि जन सेवत, तिनके दुख हारी॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

कानन कुण्डल शाभित, नासाग्ने मोती।
कोटिक चन्द्र दिवाकर, सम राजत जोती॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

शुम्भ निशुम्भ विदारे, महिषासुर घाती। 
धूम्र विलोचन नयना, निशिदिन मदमाती॥

जय अम्बे गौरी , मैया जय श्यामा गौरी

चण्ड मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे।
मधुकैटभ दोउ मारे, सुरभय हीन करे॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

ब्रह्माणी रुद्राणी, तुम कमला रानी। 
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

चौंसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरूँ।
बाजत ताल मृदंगा, औ बाजत डमरू॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

तुम हो जग की माता, तुम ही हो भरता।
भक्तन की दुख हरता, सुख सम्पत्ति करता॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

भुजा चार अति शोभित, वर मुद्रा धारी।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती। 
श्री मालकेतु में राजत, कोटिरतन ज्योती॥

जय अम्बे गौरी , मैया जय श्यामा गौरी

माँ अम्बे जी की आरती, जो कोई नर गावे
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पत्ति पावे॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी

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