गुरु ध्यान स्तोत्रम्

ॐ गुरुवे नमः

ॐ अखण्ड मण्डला काराम् व्याप्तं येना चराचरम्।
तत् पदं  दर्शितं  येन  तस्मै श्री  गुरुवे   नमः॥
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन सला कया।
चक्षुरुन मीलित येन तस्मै श्री गुरुवे नमः॥

ब्रह्म रन्ध्रे महा पदमे तेजो बिम्बे निराकुले।
योगिमिर्योग गम्ये च चारू शुक्र विराजते॥
सहस्र दल संकाशे कर्णिका मध्य मध्यके।
महा शुक्ल भास्वरार्क कोटि कोटि महौजसम॥

आत्मानां सुनिराकारं साकार ब्रह्म रूपिणम।
विद्यान यन्त्र प्रदातारं श्री गुरु  परमेश्वरम् ॥
श्रीनाथादि गुरु त्रयं गण पति पीठ त्रयं भैरवम।
सिद्धौधं वटुक त्रय पद युगं दूती क्रम मण्डलम्॥

वीरानष्ट चतुष्क षष्टि नवकं वीरावली पञ्चकम्।
श्री मन् मालिनी मन्त्र राज सहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम्॥


ॐ आज्ञा गुरुणाम करूणा निधिनां 
माया मनुष्या कृत चिन्मया नाम।
श्री कुण्डली तुण्ड चिदग्नि कुण्डेर
वाचां  सुधां   चैव    समर्पयामि ॥

ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्यविर ब्रह्माग्नौ ब्रह्माना हुतम्।
ब्रह्मैव  तेन  गन्तव्यं  ब्रह्मा  कर्मा  समाधिना ॥

ना अहम् कर्ता कार यिता न च मे कार्य्यं ।
ना अहम् भोक्ता भोज यिता वा न च भोज्यं॥

अहम् चिदात्मा स्वय मेव तेजः स्वयं गुरू विष्णु रहम् स्वरूपः॥

नान यामि स्मरे न च भजे परि हाय चाद्याम।
नान्य तपो न च गति: परिहाय चा द्याम ॥

कारणं परमं दिव्यं भव भैषज समन्वितम् पिवामि जगतां।
मातः प्रसन्ना  भव भव आत्मिके कुं कुण्डलिनी मुखे ॥

गुरू स्तव 

ॐ ब्रह्म स्थान सरोज मध्य विलसच छातांशु पीठे स्थितम्।
स्फुर्यत सुर्यं रूचिं वराभय करं कर्पूर कुन्दो ज्वलम् ॥

श्वेतः सृग्वस नानु लेपन युतं विद्यद्रुचा   कान्तया ।
संश्लिष्टार्द्ध तनुँ प्रसन्ना वदनं वन्दे गुरूं  सादरम्॥

मोहध वान्त महा वृतां ग्रह वतां चक्षुँषि चोन मीलायन।
यश्चक्रे रूचि राणि तानि दनया ज्ञानां जनाभ्यं  जनैः॥

व्याप्तं यन्महसा जगत्राय मिदं तत्व प्रवोधो दयम्।
तं वन्दे शिव रुपिणं निज गुरू सर्वार्थ सिद्धि प्रदम्॥

मातंगी भुवनेश्वरी च बगला धूमावती  भैरवी।
तारा छिन्नशिरो धरा भगवती श्यामा रमा सुन्दरी॥

दातुं न प्रभवन्ति वांछित फलं यस्य प्रसादं बिना।
तं वन्दे शिव रुपिणं निज गुरू सर्वार्थ सिद्धि प्रदम्॥

काशी द्वारवती प्रयाग मथुरा अयोध्या गया वंतिका।
माया पुष्कर कांचि कोत्कल गिरी श्रीशैल विन्ध्यादय॥

नै ते तार यितुं भवन्ति कुशलाः यस्य प्रसादं बिना।
तं वन्दे शिव रुपिणं निज गुरू सर्वार्थ सिद्धि प्रदम्॥

रेवा सिन्धु सरस्वती त्रिपथगा सूर्यात्मजा कौशिकी।
गंगा सागर सगमाद्रि तनया लोहित्य शोणादयः॥

नालं प्रोक्त फल प्रदान समये यस्य प्रसादं बिना।
तं वन्दे शिव रुपिणं निज गुरू सर्वार्थ सिद्धि प्रदम्॥

सत्किर्तिं विमला यशः सुकविता पाण्डित्य मारोग्यता।
वादे वाक् पटुला कुले चतुरता गांभीर्या मक्षोभिता॥

प्रागल्भयं प्रभुतां गुरो निपुणता यस्य प्रसादं बिना।
तं वन्दे शिव रुपिणं निज गुरू सर्वार्थ सिद्धि प्रदम्॥

लोकेशो हरि रम्बिका स्मर हरो माता पिता भ्यागता।
आचार्याः कुल पूजितो पति वरो बुद्धस्तथा   भिक्षकः॥

नैते यस्य तुला ब्रजन्ति कलया कारुण वारौ निधैः।
तं वन्दे शिव रुपिणं निज गुरू सर्वार्थ सिद्धि प्रदम्॥

ध्यानं दैवत पूजनं गुरु  तपो दान अग्नि होत्रादयः।
पाठो होम निषेवनं पितुमखा हयभ्या गतार चा वलिम‌॥

एते व्यर्थ फला भवन्ति नियतं यस्य प्रसादं बिना।
तं वन्दे शिव रुपिणं निज गुरू सर्वार्थ सिद्धि प्रदम्॥

पूर्वा शान्ति मुखी कृतांजलि पुटः श्लोकाष्टकं यः पठेत।
पौरश्चर्य विधि विनापि लभते मंत्रस्य सिद्धि पराम॥

नो विध्नैः परि भूयते प्रति दिनम प्राप्नोति पूजा कलाम्।
देहान्ते परमं परमं पदं हि विशते यद्योगिनां दुर्लभम्॥

ॐ वामकेश्वर तन्त्र पार्वतीश्वर  संवादे गुरु स्तवराज सम्पूर्णम्।


ॐ भजन ॐ 


भवसागर तारण कारण हे 
भवसागर तारण कारण हे।
रविनन्दन बन्धन खण्डन हे॥
शरणागत किंकर भीत मने।
गुरुदेव दया करो दीनजने॥१॥

हृदिकन्दर तामस भास्कर हे।
तुमि विष्णु प्रजापति शंकर हे॥
परब्रह्म परात्पर वेद भणे।
गुरुदेव दया करो दीनजने॥२॥

मनवारण शासन अंकुश हे।
नरत्राण तरे हरि चाक्षुष हे॥
गुणगान परायण देवगणे।
गुरुदेव दया करो दीनजने॥३॥

कुलकुण्डलिनी घुम भंजक हे।
हृदिग्रन्थि विदारण कारक हे॥
मम मानस चंचल रात्रदिने।
गुरुदेव दया करो दीनजने॥४॥

रिपुसूदन मंगलनायक हे।
सुखशान्ति वराभय दायक हे।
त्रयताप हरे तव नाम गुणे।
गुरुदेव दया करो दीनजने॥५॥

अभिमान प्रभाव विमर्दक हे।
गतिहीन जने तुमि रक्षक हे॥
चित शंकित वंचित भक्तिधने।
गुरुदेव दया करो दीनजने॥६॥

तव नाम सदा शुभसाधक हे।
पतिताधम मानव पावक हे॥
महिमा तव गोचर शुद्ध मने।
गुरुदेव दया करो दीनजने॥७॥

जय सद्गुरु ईश्वर प्रापक हे।
भवरोग विकार विनाशक हे॥
मन जेन रहे तव श्रीचरणे।
गुरुदेव दया करो दीनजने॥८॥


अस्मद्गुरुभ्यो नमः 


शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

यदि शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ ।

कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं
गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में मन की आसक्ति न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?

षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उसका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति अनासक्त हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इसे सदभाग्य से क्या लाभ?
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्
जगद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगान्तरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तिभाव न रखता हो तो इन सारे ऐश्वर्यों से क्या लाभ?
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ
न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्रीसुख से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की अटलता से क्या लाभ?
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भंडार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये तो उसकी सारी अनासक्तियों का क्या लाभ?
अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक्
समालिंगिता कामिनी यामिनीषु।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों से क्या लाभ?
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लभेत् वांछितार्थ पदं ब्रह्मसंज्ञं
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्॥

जो यती, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को सम्प्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।


ॐ ऐं गुरुवे नमः