किस ने की महामृत्युंजय मंत्र की रचना, और जाने इसकी शक्ति क्या है?महादेव के अनन्त भक्त मृकण्ड ऋषि संतान हीन होने के कारण दुखी थे विधाताओं ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था,मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्न कर यह विधान बदलवाया जाये।मृकण्ड जी ने घोर तप किया भोलेनाथ मृकण्ड जी के तप का कारण जानते थे इसलिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं।
महादेव प्रसन्न हुए उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा ।महादेव के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है, इसकी उम्र केवल 12 वर्ष है।ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही महादेव इसकी रक्षा करेंगे, भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है।
मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी, मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी ।मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है बारह वर्ष पूरे होने को आए थे।
मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगें।समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था ।यमदूतों का मार्कण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए।
इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए ।बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया ।यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं।
यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है ।भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है तुम इसे नहीं ले जा सकते ,यम ने कहा- प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा ।महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है ।
हस्ताम् भोज युगस्त कुम्भ युगलादुद्धृतय तोयं शिरः।
सिञ्चन्तं करयोर् युगेन दधतं स्वाङ्के सकुम्भौ करौ॥
अक्षस्त्रग् मृगहस्त मम्बु जगतं मूर्द्धस्थ चन्द्रं स्त्रवत्।
पीयूषो ऽत्र तनुं भजे स गिरिजं मृत्युञ्जयं त्र्यम्बकम्॥
चन्द्रोद् भासित मूर्द्धजं सुरपतिं पीयूषपात्रं बहद्।
हस्ताब्जेन दधत् सुदिव्यम मलं हास्याय पङ्केरुहम्॥
सूर्येन्द्वग्नि विलोचनं करतले पाशाक्ष सूत्रङ्कुशाम्।
भोजं बिभ्रतम क्षयं पशुपतिं मृत्युञ्जयं संस्मरे॥
स्मर्त्तव्या खिललोक वर्ति सततं यज्जङ्गम स्थावरं।
व्याप्तं येन च यत्प्रपञ्च विहितं मुक्तिश्च यत् सिद्धयति॥
यद्वा स्यात् प्रणवत्रि भेदगहनं श्रुत्वा च यद् गीयते।
तद्वस्तु स्थिति सिद्धये ऽस्तु वरदं ज्योति स्त्रयोत्थं महः॥
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥
ध्यायेन् नित्यं महेशं रजतगिरि निभं चारुचन्द्रावतंसं।
रत्ना कल्पोज्ज्वलाङ्गं परशु मृगवराभीति हस्तं प्रसन्नम्॥
पद्मासीनं समन्तात् स्तुति ममरगणैर् व्याघ्रकृत्तिं वसानं।
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिल भयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥
महामृत्युञ्जय स्तोत्रम्
ॐ अस्य श्रीमहामृत्युञ्जयस्तोत्र मन्त्रस्य श्रीमार्कण्डेय ऋषि अनुष्टुप् छन्दः श्री मृत्युञ्जयो देवता गौरी शक्तिः मम सर्वारिष्ट समस्त मृत्यु शान्त्यर्थं सकलैश्वर्य प्राप्त्यर्थं च जपे विनियोग:॥
ध्यानम्
चन्द्रार्काग्नि विलोचनं स्मितमुखं पद्मद्व यान्तः स्थितं।
मुद्रा पाश मृगाक्ष सूत्रविल सत्पाणिं हिमांशु प्रभाम्॥
कोटीन्दु प्रगलत् सुधाप्लुत तनुं हारादि भूषोज्ज्वलं।
कान्तं विश्वविमोहनं पशुपतिं मृत्युञ्जयं भावयेत्॥
स्तोत्रम्
ॐ रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नील कण्ठ मुमापतिम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
नीलकण्ठं कालमूर्तिं कालज्ञं काल नाशनम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
नीलकण्ठं विरूपाक्षं निर्मलं निलय प्रभम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद् गुरुम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
देव देवं जगन्नाथं देवेशं वृषभ ध्वजम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
गङ्गाधरं महादेवं सर्वा भरण भूषितम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
अनाथः परमानन्दं कैवल्य पद गामिनम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
स्वर्गा पवर्ग दातारं सृष्टि स्थिति विनाशकम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
उत्पत्ति स्थिति संहार कर्त्तार मीश्वरं गुरुम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥
मार्कण्डेय कृतं स्तोत्रं यः पठेच्छिव सन्निधौ।
तस्य मृत्युभयं नास्ति नाऽग्नि चौरभयं क्वाचित्॥
शतावर्तं प्रकर्त्तव्यं सङ्कटे कष्टनाशनम्।
शुचिर् भूत्वा पठेत् स्त्रोत्रं सर्व सिद्धि प्रदायकम्॥
मृत्युञ्जय महादेव त्राहि मां शरणागतम्।
जन्म मृत्यु जरा रोगैः पीडितं कर्म बन्धनैः॥
तावतस् त्वद् गतप्राणस् त्वच्चित्तो ऽहं सदा मृड।
इति विज्ञाप्य देवेशं त्र्यम्बका ख्य मनुं जपेत्॥
नमः शिवाय साम्बाय हरये परमात् मन्।
प्रणत क्लेश नाशाय योगिनां पतये नमः॥
शताङ्गायुर्मन्त्रः
ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं ह्रैं हः हन हन दह दह पच पच गृहाण गृहाण मारय मारय मर्दय मर्दय महा महा भैरव भैरव रूपेण धुनुय धुनुय कम्पय कम्पय विघ्नय विघ्नय विश्वेश्वर क्षोभय क्षोभय कटु कटु मोहय हुं फट् स्वाहा॥इति श्रीमार्कण्डेय पुराणे मार्कण्डेय कृतं महामृत्युंञ्जय स्तोत्रं सम्पूर्णम्