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सुन्दरकाण्ड
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ ॥ ॐ श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदास जी विरचित ॥
सुन्दरकाण्ड
प्रनवउँ पवन कुमार खल बल पालक ग्यान उन ।
जासु हृदय आगार बस हिन् राम सर चाप धर ॥
दोहा
बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ ।
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ ॥
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा ।
जियँ संसय कछु फिरती बारा ॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक ।
पठइअ किमि सबही कर नायक ॥
कहा रीछपति सुनु हनुमाना ।
का चुप साधि रहेहु बलवान ॥
पवन तनय बल पवन समाना ।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं ।
जो नहिं होई तात तुम्ह पाहीं ॥
राम काज लगि तव अवतारा ।
सुनतहिं भयउ पर्बता कारा ॥
कनक बरन तन तेज बिराजा ।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा ॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा ।
लीलहिं नाघउँ जल निधि खारा ॥
सहित सहाय रावनहि मारी ।
आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही ।
उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई ।
सीतहि देखि कहहु सुधि आई ॥
तब निज भुज बल राजिव नैना ।
कौतुक लागि संग कपि सेना ॥
[ छन्द ]
कपि सेन संग सँघारि निसिचर
राम सीतहि आनि हैं ।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि
नारदादि बखानि हैं ॥
जो सुनत गावत कहत समुझत
परम पद नर पावई ॥
रघुबीर पद पाथोज मधुकर
दास तुलसी गावईं ॥
दोहा
भव भेषज रघुनाथ जसु सु्नहिं जे नर अरु नारि ।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारी ॥
[ सोरठ ]
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक ।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ॥
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीराम चरित मानस
पञ्चम सोपान
सुन्दरकाण्ड
ध्यान मन्त्र
शान्तं शाश्वतम प्रेम यमनघं निर्वाण शान्ति प्रदं ।
ब्रह्मा शम्भु फणीन्द्र सेव्यम निशं वेदान्त वेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरम् सुरगुरुं माया मनुष्यं हरिं ।
वन्देऽहं करुणा करं रघुवरं भूपाल चूडा मणिम् ॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्म दोये ।
सत्यं वदामि च भवा नखिलान्तरा अत्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघु पुङ्गव निर्भरां में ।
कामादि दोष रहितं करु मानसं च ॥
अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं ।
दनुज वन कृशानुं ज्ञानिना मग्र गण्यम् ।
सकल गुण निधानं वानरा णाम धीशं ।
रघुपति प्रिय भक्तं वात जातं नमामि ॥
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥ तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥ यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥
बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना ।
एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥
[दोहा १] हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम । राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥ जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥ सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥ आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥ राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥ तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥ कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥ सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ । तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥ जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा । तासु दून कपि रूप देखावा ॥ सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥ बदन पइठि पुनि बाहेर आवा । मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥ मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा । बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥ [दोहा २]राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥ निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई ॥ जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥ गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥ सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥ ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥ तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥नाना तरु फल फूल सुहाए । खग मृग बूंद देखि मन भाए ॥ सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ॥ उमा न कछु कपि कै अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥ गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥ अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकाशा॥ छन्दकनक कोट बिचित्र मनि कृत, सुंदरायतना घना। चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं, चारु पुर बहु बिधि बना ॥ गज बाजि खच्चर निकर पदचर, रथ बरूथन्हि को गनै । बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल, सेन बरनत नहिं बनै ॥
बन बाग उपबन बाटिका, सर कूप बापीं सोहहीं। नर नाग सुर गंधर्ब कन्या, रूप मुनि मन मोहहीं ॥ कहुँ माल देह बिसाल सैल, समान अतिबल गर्जहीं। नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि, एक एकन्ह तर्जहीं ॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन, नगर चहुँ दिसि रच्छहीं। कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज, खल निसाचर भच्छहीं ॥ एहि लागि तुलसीदास इन्ह की, कथा कछु एक है कही । रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि, त्यागि गति पैहहिं सही ॥
[दोहा ३]
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥
मसक समान रूप कपि धरी ।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोर ।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि मोरा हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ॥
पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥ जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे ।।
तात मोर अति पुन्य बहूता ।
देखेउँ नयन राम कर दूता ॥
[दोहा ४]
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा ।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई ।
गोपद सिंधु अनल सितलाई ।।
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही ।
राम कृपा करि चितवा जाही ॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना ।।
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥
सयन किएँ देखा कपि तेही ।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा ।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥
[दोहा ५]
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ॥
लंका निसिचर निकर निवासा ।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदय हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी ॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए ॥
करि प्रणाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी ॥
[दोहा ६]
तब हनुमंत कहि सब राम कथा निज नाम ।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुण ग्राम॥
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥
तमस तनु कछु साधन नहीं ।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता ।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना ।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा ।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥
[दोहा ७]
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी ।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ।।
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ।।
पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता ।
देखी चहउँ जानकी माता ।।
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ ॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा ।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥
[दोहा ८]
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई ॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा ।
संग नारि बहु किएँ बनावा ॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा ।
साम दान भय भेद देखावा ॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी ।
मंदोदरी आदि सब रानी ॥
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा ।
एक बार बिलोकु मम ओरा ।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही ।
सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा ।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही ।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥
[दोहा ९]
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥
सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ।।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा ।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥
चंद्रहास हरु मम परितापं ।
रघुपति बिरह अनल संजातं ॥
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा ॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा ।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥
मास दिवस महुँ कहा न माना ।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥
[दोहा १०]
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥
त्रिजटा नाम राच्छसी एका ।
राम चरन रति निपुन बिबेका ॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥
सपनें बानर लंका जारी।
जातुधान सेना सब मारी ॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा ।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥
यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥
[दोहा ११]
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥
त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी ।
मातु बिपति संगिनी तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई ।
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥
आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई ।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी ।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि ।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी ।
अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला ।
मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ।।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा ।
अवनि न आवत एकउ तारा ।।
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका ।
सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥
नूतन किसलय अनल समाना ।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना ।।
देखि परम बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥
[सोरठा १२]
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥
तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥
जीति को सकइ अजय रघुराई ।
माया तें असि रचि नहिं जाई ॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ।।
रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥
लागीं सुनें श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई ॥ तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥
राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की ॥ यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥
नर बानरहि संग कहु कैसें। कहि कथा भई संगति जैसे ॥
[दोहा १३]
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ।।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना ॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥
कोमलचित कृपाल रघुराई ।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई ।।
सहज बानि सेवक सुखदायक ।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता ।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ।।
बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता ।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता ।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥
[दोहा १४]
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥
कहेउ राम बियोग तव सीता ।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥
कुबलय बिपिन कुंतबन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई ।
काहि कहौं यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा ।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही ।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता ।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥
[दोहा १५] निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु । जननी हृदय धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥
जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा ।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं ।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना ।
जातुधान अति भट बलवाना ॥
मोरें हृदय परम संदेहा ।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥
कनक भूधराकार शरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा ॥
सीता मन भरोस तब भयऊ ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥
[दोहा १६]
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥
मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहूँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥
बार बार नाएसि पद सीसा ।
बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता ।
आसिष तव अमोघ बिख्याता ।।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा ।
लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी ।
परम सुभट रजनीचर भारी ॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥
[दोहा १७]
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा ।
फल खाएसि तरु तौरें लागा ।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे ।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ।
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ।।
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ।।
सब रजनीचर कपि संघारे ।
गए पुकारत कछु अधमारे ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा ।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा ।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥
[दोहा १८]
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना ।।
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही ।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा ।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ।।
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई ॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया ।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥
[दोहा १९]
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा ।।
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा ।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता ।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥
[दोहा २०]
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥
कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा ।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा ।
पालत सृजत हरत दससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन ।
अंडकोस समेत गिरि कानन ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता ।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ।।
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बल साली ॥
[दोहा २१]
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई ॥
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा ।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी ।
मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा ।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥
जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै ॥
[दोहा २२]
प्रणतपाल रघुनायक करुणा सिंधु खरारि।
गाएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू ॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी ॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रहीं पाई बिनु पाई ॥ सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥ संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥
[दोहा २३]
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥
जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥ बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥
मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ।। उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥ सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता ॥ आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर ।।
[दोहा २४]
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ।।
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई ।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना ॥
जातुधान सुनि रावन बचना ।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ।।
रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥
पावक जरत देखि हनुमंता ।
भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भईं सभीत निसाचर नारीं ॥
[दोहा २५]
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥
देह बिसाल परम हरु आई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा ॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा ।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥
उलटि पलटि लंका सब जारी ।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥
[दोहा २६]
पूँछ बबैइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जानकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा ।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा ।
सब प्रकार प्रभु पूरन कामा ।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी ।
हरहु नाथ मम संकट भारी ॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु ।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा ।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ।।
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥
[दोहा २७]
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरण कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिन्धु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥
मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥
तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए ॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥
[दोहा २८] जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज । सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥
जौं न होति सीता सुधि पाई ।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा ॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा ।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा ।।
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥
[दोहा २९]
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
सोइ बिजई बिनई गुन सागर ।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू ।
जन्म हमार सुफल भा आजू ॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी ।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥
[दोहा ३०]
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदय लाइ सोइ लीन्ही ॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी ॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनता रति हरना ।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ॥
अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरें न पाव देह बिरहागी ॥
सीता कै अति बिपति बिसाला ।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥
[दोहा ३१]
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना ।
भरि आए जल राजिव नयना ॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।
जब तव सुमिरन भजन न होई ॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा ।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं ।
देखउँ करि बिचार मन माहीं ॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता ।
लोचन नीर पुलक अति गाता ॥
[दोहा ३२]
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥
बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा ।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥
सावधान मन करि पुनि संकर ।
लागे कहन कथा अति सुंदर ॥
कपि उठाइ प्रभु हृदय लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा ॥
कहु कपि रावन पालित लंका ।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना ॥
साखामृग कै बड़ि मनुसाई ।
साखा तें साखा पर जाई ॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ॥
सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥
[दोहा ३३]
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥
नाथ भगति अति सुखदायनी ।
देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा ।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा ॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे ।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी ।
नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥
[दोहा ३४]
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा ।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा ॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥
जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती ॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई ।
असगुन भयउ रावनहि सोई ॥
चला कटकु को बरनैं पारा ।
गर्जहिं बानर भालु अपारा ।।
नख आयुध गिरि पादपधारी ।
चले गगन महि इच्छाचारी ॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥
[ छन्द ]
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि, लोल सागर खरभरे ।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि, नाग किंनर दुख टरे ॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट, बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोस, नाथ गुन गन गावहीं ॥१॥
सहि सक न भार उदार अहिपति, बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट, कठोर सो किमि सोहई ॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति, जानि परम सुहावनी ।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो, लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥
[दोहा ३५]
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका ॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा ।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।
जासु दूत बल बरनि न जाई ।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी ।
बोली बचन नीति रस पागी ॥
कंत करष हरि सन परिहरहू ।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू ॥
समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी ॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई ॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥
[दोहा ३६]
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा ।
मंगल महुँ भय मन अति काचा ।।
जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता ।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ।।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई ॥
बुझेसी सचिव मत कहहू ।
ते सब हँसे मस्ट करि रहहू॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नहीं।
नर बानर केहि लिखे माहीं॥
[दोहा ३७]
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा ।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन ।
बोला बचन पाइ अनुसासन ॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता ॥
जो आपन चाहै कल्याना ।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥
सो परनारि लिलार गोसाईं ।
तजउ चउथि के चंद कि नाईं ॥
चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥
गुन सागर नागर नर जोऊ ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥
[दोहा ३८]
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥
तात राम नहिं नर भूपाला ।
भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता ।
ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता ।
वेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही ।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन ।
सोइ प्रभु प्रगट समुझ जियँ रावन ॥
[दोहा ३९ (क), (ख)]
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥
माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन ।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी ।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं ।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।।
तव उर कुमति बसी बिपरीता ।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ।।
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ।।
[दोहा ४०]
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥
बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी ॥
सुनत दसानन उठा रिसाई ।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई ॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा ।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा ।।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई ।
मंद करत जो करइ भलाई ॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥
[दोहा ४१]
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं ॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी ॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥
जे पद परसि तरी रिषिनारी ।
दंडक कानन पावनकारी ॥
जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए ॥
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई ॥
[दोहा ४२]
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा ।
आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ।।
ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई ॥
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा ।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया ॥
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी ॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना ।
[दोहा ४३]
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई ।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
भेद लेन पठवा दससीसा ।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥
जग महुँ सखा निसाचर जेते ।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ॥
[दोहा ४४]
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपा निकेत ।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥
सादर तेहि आगें करि बानर ।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर ।।
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता ।
नयनानंद दान के दाता ।।
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥ भुज प्रलंब कंजारुन लोचन ।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन ।।
सिंघ कंध आयत उर सोहा ।
आनन अमित मदन मन मोहा ।।
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥
नाथ दसानन कर मैं भ्राता ।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता ।।
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥
[दोहा ४५]
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥
अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा ।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ।।
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी ।।
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ।।
खल मंडली बसहु दिनु राती ।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती ।।
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ।।
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ।।
[दोहा ४६]
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना ।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा ।
धरें चाप सायक कटि भाथा ॥
ममता तरुन तमी अँधिआरी ।
राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥
अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे ।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥
[दोहा ४७]
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जन भुसुण्डि संभु गिरिजाऊ ॥ जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन ताकी मोहि॥
तजि मद मोह कपाट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें ।।
[दोहा ४८]
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥
राम बचन सुनि बानर जूथा ।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी ।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा ।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतर जामी ॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥
अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भवानी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रणधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥
जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भाई अपारा।।
[दोहा ४९ (क), (ख)]
रावण क्रोध अनल निज स्वस समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाणा॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्वरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
करण मनुज दनुज कुल घालक॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा ।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक ।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई ॥
[दोहा ५०]
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तारिहि सकल भालु कपि धारी॥
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई ।
करिअ दैव जौं होइ सहाई ।।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा ।।
नाथ दैव कर कवन भरोसा ।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥
कादर मन कहुँ एक अधारा ।
दैव दैव आलसी पुकारा ।।
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा ।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई ।
सिंधु समीप गए रघुराई ॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए ॥
[दोहा ५१]
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदय सराहहिं सरनागत पर नेह ॥
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने ।।
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर ।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर ।।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए ।
बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना ॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए ।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥
[दोहा ५२]
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार ।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥
तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा ॥
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता ।।
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी ।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥
करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी ॥ पुनि कहु भालु कीस कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदय त्रास अति मोरी ॥
[दोहा ५३]
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें ।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥
रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ।।
श्रवन नासिका काटैं लागे ।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ।।
पूँछिहु नाथ राम कटकाई ।
बदन कोटि सत बरनि न जाई ।।
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी ॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ।।
अमित नाम भट कठिन कराला ।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥
[दोहा ५४]
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि ।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥
ए कपि सब सुग्रीव समाना ।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं ।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा ।
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ॥
मर्दि गर्द मिलवाहं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ॥
[दोहा ५५]
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥
राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई ॥
सक सर एक सोषि सत सागर ।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ।।
तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई ॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई ।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ।।
सचिव सभीत बिभीषन जाकें ।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारी पत्रिका कढ़ी ।।
रामानुज दीन्ही यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन ।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन ।।
[दोहा ५६ (क), (ख)]
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस ।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई ॥
भूमि परा कर गहत अकासा ।
लघु तापस कर बाग बिलासा ॥
कह सूक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही ॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे ।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे ॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही ।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ।।
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ।।
[दोहा ५७]
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति ।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी ॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा ।
ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा ।
यह मत लछिमन के मन भावा ॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला ।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥
मकर उरग झष गन अकुलाने ।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥
[दोहा ५८]
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही ।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी ।
सकल ताड़ना के अधिकारी ॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ॥
[दोहा ५९]
सुनत बिनित बचन अति कह कृपाल मुसुकाई।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई ॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ।।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥
एहिं सर मम उत्तर तट बासी ।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा ।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥
देखि राम बल पौरुष भारी ।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा ।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा ।।
[ छन्द ]-
निज भवन गवनेउ सिंधु, श्रीरघुपतिहि यह मत भयउ।
यह चरित काली मलहर जथामती, दास तुलसी गायऊ ॥
सुख भवन संसय समन दवन, बिषाद रघुपति गुण गण।
तजि सकल अस भरोस गावहि, सुनहि संतत सठ मना ॥
[दोहा ६०]
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिन्धु बिना जलजान॥
( कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्रीरामचरितमानस का यह पंचवाँ सोपान समाप्त हो गया। )
(सुन्दरकाण्ड समाप्त ) ॥ श्रीहनुमते नमः॥