यदि आमंत्रित देवता आये ही नहीं तो पूजा किसकी की जायेगी ? यदि आमन्त्रित देवता को बैठने के लिए उसके अनुकूल आसन प्रदान ही नहीं किया जायेगा तो वह आकर बैठे ही कहां ?
प्रश्न उठता है कि आमन्त्रित देवता को बैठने के लिए यन्त्र को ही आसन के रूप में क्यों प्रस्तुत किया जाय ?
इसका सीधा उत्तर यह है कि यदि आप हाथी को आमंत्रित करते हैं तो क्या उसको बैठने के लिए एक फीट का पीढा देंगे ? यदि नहीं तो स्पष्ट है कि ' विश्वमय ' को बैठने के लिए विश्व का ही आसन देना पड़ेगा अन्यथा अनन्त ब्रह्माण्डो के आसन पर आसीन वह आमन्त्रित विश्वमय अतिथि किसी छोटे आसन पर बैठ ही नहीं पायेंगे
प्रश्न फिर उठता है कि उस आमंत्रित अतिथि को बैठने के लिए अनंत ब्रह्मांण्डों का आसन दिया ही कैसे जाय ? बस इसी का उत्तर है— यंत्र
यंत्र भगवान अनंत ब्रह्माण्डो , प्रकृत्यण्डों एवं शाक्ताण्डों को अपने में समाहित करने वाला विराट् विश्वासन है इसीलिए कहा गया है कि यंत्र अनंत सिष्टि एवं अनंत ब्रह्माण्डों का रेखाचित्र है और भगवान् का आसन है
परमात्मा तो निराकर है किंतु साधक जब उस परमात्मा को आमंत्रित करता है तो उसके निराकर स्वरूप को नहीं प्रत्युत उसके साकार एवं सशरीर स्वरूप को आमंत्रित करता है उस आमंत्रित अशरीरी अतिथि को साधक के पास आने के लिए शरीर देना होगा यदि साधक उसे शरीर नहीं देगा तो वह किसमें स्थिर होकर साकार बन पायेंगे ? वह शरीर पाये बिना साकार कैसे हो पाएगा ? बिना साकार हुए वह साधक के पास कैसे आ सकेगा ? इसलिए साधक अशरीर अतिथि को सशरीर उपस्थित होने के लिए शरीर प्रदान करता है
यन्त्र ही भगवान् का शरीर है—
वह आमंत्रित निराकार एवं अशरीरी देवता उस यंत्र रूप शरीर में प्रविष्ट होकर ही उस शरीर रूपा आसन पर आसीत होते है इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि—
यन्त्र भगवान् का शरीर है—
विश्र्वातीत का विश्व स्वरूप विश्र्वशरीरी है विश्व उसका शरीर है इसीलिए कहा गया है— "भगवान् विश्र्वशरीरः"
एक प्रश्न फिर उठता है कि यदि यंत्र भगवान का आसन है तो उसे भगवान् क्यों कहा गया है ? आसन तो सदैव आसीन से पृथक होता है; यथा—
अश्र्व और अश्र्वारोही, रथ और रथी, वायुयान और वायुयानचालक ( प्लेन और पाइलट ) फिर आसन को ही आसीन सत्ता से अभिन्न कैसे कहा जा सकता है ?
पुजारी का आसन है कंबल,मृगचर्म, व्याघ्रचर्म या कम्बल, मृगचर्म एवं व्याघ्रचर्म ही पुजारी भी है ? क्या वे दोनों पृथक् पृथक् नहीं है ? यदि है तो उन्हें अपृथक् एवं अभिन्न क्यों कहा गया है ? कारण सुस्पष्ट है आसन पर आसीन साधक ( या पुजारी ) आसन के भीतर नहीं है आसन के अणु परमाणुओं में व्याप्त नहीं है आसन से पृथक है किंतु परमात्मा का जो विश्वरूप आसान है उस आसन में तो परमात्मा समाया हुआ है ।
उससे अभिन्न है तदात्मक है क्योंकि परमात्मा विश्व के प्रत्येक अणु - परमाणु में उसकी सत्ता बनकर विराजमान है अतः पुजारी और उसके आसन के सम्बन्ध के समान भगवान् और उसके आसन का सम्बन्ध नहीं है ।
(०१.) पुजारी और उसके आसन में- आधार-आधेय सम्बन्ध है अतः दोनों की सत्ता पृथक पृथक है
(०२.) भगवान् और उनके आसन ( विश्व ) में कारण कार्य का सम्बन्ध हैं अतः दोनों की सत्ता अपृथक् हैं
विश्व भगवान का महायन्त्र है यन्त्र विश्व का संक्षिप्त संस्करण हैं यन्त्र ब्रह्माण्ड की मायाण्ड एवं शाक्ताण्ड की प्रतिकृति है भगवान् के मुख्यत तीन स्वरूप है ।
